दृष्टिकोण में साम्य, भावनात्मक साम्य और व्यवहार में साम्य सम्भव नहीं है। विचारों में विविधता और हर विचार का आदर नये-नये विचारों का उदित होना, वैचारिक साम्य और असाम्य समर्थन या प्रतिरोध निरन्तर प्रक्रिया है। महान वैज्ञानिक साम्यवादी कार्ल मार्क्स ने अपना विचार व्यक्त करने के पश्चात् स्वयं से प्रश्न पूछा कि क्या मैं मार्क्सवादी हूँ और उन्होंने यह भी कहा कि मेरे साम्यवादी चिन्तन का प्रतिवाद भी अवश्यंभावी है। स्पष्ट है कि उन्होंने अपने साम्यवादी सिद्धांत को अंतिम नहीं माना और न तो निरपेक्ष कहा। भारत में भी साम्यवादी चिन्तन रहा किन्तु भारत का साम्यवादी चिन्तन भौतिक रूप नहीं ले सका, या तो वह शास्त्र का विषय बनकर रह गया या साहित्य का विषय। वैज्ञानिक आधार पर वह खड़ा नहीं हो पाया क्योंकि उन विचारों को व्यक्त करने वाले स्वयं उससे विरत रहे। अपने शिष्यों को तो उन्होंने वह ज्ञान दिया किन्तु धर्म व्यवस्था चलाने वालों, समाजिक व्यवस्था पर नियंत्रण रखने वालों, आर्थिक संरचना का लाभ उठाने वालो और सत्ताधारियों के अनुकूल न होने के चलते वे विचार बुद्धिजीवियों के विलास बन कर रह गये। भावनात्मक आधार पर वे विचार कामना पूर्ति, लोभ और मोह के चलते उत्पन्न अभिमान और अहंकार जनित व्यवस्था के अनुकूल नहीं थे। कोई नहीं चाहता कि सामाजिक प्रतिष्ठा जो उसके पास है उसने वह वंचित हो जाय और उसका सामाजिकरण हो जाय। कोई नहीं चाहता कि धन संपदा के भोग के अवसर कम हो जाय और सभी को वह सुविधा व साधन प्राप्त हो जाय। यही नहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न होने पर नैतिकता पर आँच तो नहीं आयेगी, समाज को नैतिक होना भी चाहिए किन्तु आस्था का शोषण और विश्वास का उन्माद उत्पन्न नहीं होगा जो दंभी, अभिमानी और अहंकारी व्यक्ति एवं समुदाय दोनों के लिए ग्राह्य नहीं है। मार्क्स के वैज्ञानिक साम्यवाद के आधार पर दुनिया के कई देशों में समाजवादी व्यवस्था के माध्यम से मूर्त रूप देने का प्रयास किया गया। न्यूनतम समय में उच्चतम उपलब्धियाँ भी प्राप्त की गई किन्तु मानवीय मसिक स्थितियों के चलते व्यक्तिवादी और पूँजीवादी वायरस (किटाणु) उस व्यवस्था में घुस गये जिसका परिणाम यह हुआ कि उन देशों में यह प्रयोग वांछित उपलब्धियों तक पहुँचने से पहले ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया फिर भी वहाँ नये सिरे से समाजवादी विचारधारा नये रूप में चल रही है। वैज्ञानिक साम्यवाद भौतिक है और पुराना भारतीय साम्यवाद वैचारिक या भावनात्मक वैचारिक या भावनात्मक साम्यवाद को भौतिक धरातल नहीं मिला और भौतिक साम्यवाद को मानवीय मानसिक विकारों का सम्बल नहीं। मार्क्स ने यह माना ही नहीं कि मनुष्य की चेतना भौतिक पदार्थों से भिन्न है। उन्होंने माना कि मानवीय चेतना भौतिक संघातों का परिणाम है। उन्होंने अपने गुरु हिगल के द्वन्द्वात्मक विचारवाद को खंडित करके, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत दिया और कहा कि हिगल का सिद्धांत सिर के बल चलता था जिसे मैंने पैर के बल खड़ा किया।
साम्यवाद की स्थापना में विकार बाधक है जिनके चलते साम्यवाद उदित नहीं हो पाता और असंतुलन की स्थिति बनी रहती है। यह स्थिति सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक राजनैतिक अथवा उन सभी क्षेत्रों में जहाँ विकार है वहाँ असाम्य है। मानवीय चिंतन में योग का दृष्टिकोण ही असन्तुलन को दूर करने का शास्त्र है। योगशास्त्र के अनुसार असन्तुलन का कारण चित्त की अवस्थाएँ हैं, चित्त जब शुद्ध होता है, शान्त होता है, निर्विकार होता है तब उस अवस्था में योग होता है योग अप्राप्त को प्राप्त करना नहीं अपितु अपनी स्व स्थिति में रम जाना है। चित्त की वृत्तियाँ चित्त को निर्विकार नहीं होने देती, स्वरूप में स्थित योगी निर्विकार हो जाता है तथा निर्विकल्प स्थिति तक जाने के लिए चल देता है। निर्विकल्प स्थिति साम्य की स्थिति है जिसमें न कोई असन्तुलन होता है और न कोई असन्तुलन का कारण। योग शास्त्र के अनुसार चित्त की पाँच वृत्तियाँ होती हैं। वृत्ति से तात्पर्य है चित्त का रमण अर्थात् चित्त रमा होता है या रमण करता होता है। प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति ये पांच चित्त की वृत्तियाँ बताई गयी हैं इनमें से बहुत सी वृत्तियाँ सरल है या कमजोर होती हैं। इनमें असानी से निरूद्ध हो जाती हैं। किन्तु कुछ लोगों के लिए इन वृत्तियां का निरोध कठिन होता है। प्रत्यक्ष इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान, अनुमान के आधार पर सिद्ध ज्ञान और आप्त बचन वेद आदि अथवा मान्य व्यक्तियों के वचन प्रमाण कहलाते हैं। कुछ का कुछ समझल लेना विपर्यय है, अनहोनी को होनी समझकर उसे मान लेना विकल्प, चित्त का निष्क्रिय अवस्था से सिथिल रहना, निद्रा और स्मृतियों में डूबे रहना स्मृति कहलाता है। जिन लोगों के ये वृत्तियाँ अधिक प्रभावी ढंग से घेरे रहती हैं उन्हें उनसे शीघ्र छुटकारा नहीं मिलता। जैसे बहुत से लोग शास्त्रों में रमण करते रहते हैं इसलिए उन्हें उन प्रमाणों से छुटकारा पाना बहुत कठिन होता है। चित्त की वृत्तियों को निरूद्ध हुए बिना योग सम्भव नहीं है। चित्त की वासनायें पराधीन बनाती हैं और असन्तुलन का कारण भी हैं। हम यहाँ चित्त वृत्तियों के निरोध के साधनों का उल्लेख नहीं कर रहे हैं क्योंकि आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये साधन पथ हैं जिन्हें जीवन में उतारना पड़ता है। ये सोपान नहीं जो एक के बाद दूसरा, अपनाया अपितु अन्तः यात्रा के ये सभी घटक हैं जिन्हें समान रूप से सम्यक् भाव से और यथोचित रूप में जीवन का अंग बनाये जाना चाहिए।
मैं यहाँ योग के केवल दो अंगों की ओर संकेत करना चाहता हूँ। एक यम, दूसरा नियम। योगशास्त्र में इन्हें सार्वभौम कहा गया अर्थात् दुनिया के सभी लोगों को हर अवस्था में इनका पालन निश्चित रूप से करना चाहिए। यम पाँच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संचयन करना)। यम सामाजिक और आर्थिक के अतिरिक्त न्याय व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए है। इनका उल्लंघन किसी भी व्यक्ति का कर्तव्य नहीं और इनका पालन न करना दण्डनीय है। हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और संग्रह के चलते समाज में अव्यवस्था और असन्तुलन बना रहता है। ऐसी स्थिति में व्यवस्था की दृष्टि से हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह इनका पालन करे। यही नहीं हर व्यवस्था के लिए यह अनिवार्य है कि वह इनका पालन कराये, चाहें इसके लिए जिस तरह का भी यत्न करना पड़े। ये सभी व्यक्तिगत एवं सामोहिक जीवन को क्षति पहुँचाने वाले तत्व हैं, इसलिए इनका पालन न करने वाले यदि व्यक्ति या व्यवस्था द्वारा नियंत्रित नहीं किये जाते तो उन्हें प्रकृति यम सिद्धांतों के अनुसाार नियंत्रित कर देती है। इसे ही यम लोक में जाना कहा जाता है और इसके सभी सहयोगियों को यमदूत की संज्ञा दी जाती है। पाँच नियम है- सौच (शरीरिक, मांसिक, और बौद्धिक स्वच्छता), स्वाध्याय (मूल या केन्द्रीय तत्वों का अध्ययन) अर्थात् कार्यों के कारणों की खोज, तप-अर्थात् शरीर, मन, बुद्धि का अभ्यासरत होकर प्रतिक्षा करना। सन्तोष (कामना रहित, आशक्ति मुक्त और लोभ प्रेरित न होना) ईश्वर प्रणिधान-अर्थात् सभी कार्यों के फलों को ईश्वर अर्थात् जगन्नियन्ता से प्राप्त स्वीकार करते हुए उन्हें समार्पित कर देना। ये पाँच नियम व्यक्तिगत है किन्तु इनका प्रभाव गुणात्मक रूप में सम्पूर्ण व्यवस्था पर भी पड़ता है। इसीलिए पातंजल योगशास्त्र ने उन्हें हर देश, हर काल, हर परिस्थिति और हर व्यक्ति के लिए सार्वभौमिक रूप से अनिवार्य घोषित किया है। कृष्ण द्वैयपन वेद व्यास के महाभारत का एक अंश भगवत गीता में ‘योगः कर्मषु कौशलम्’ कहा गया है जिसके दो अर्थ लगाये जाते है। एक यह कि योगाभ्यासी को कर्मों में कुशलता प्राप्त हो जाती हैं अर्थात् हर कर्मों को वह कुशलता पूर्वक निश्चिंत होकर योग्यता के साथ सम्पन्न करता है। दूसरा अर्थ यह कि हर कर्म को कुशलता पूर्वक कर लेना भी योग ही है। गीता में यह भी कहा गया है कि ‘समत्वं योग मुच्यते’ अर्थात् समत्व (साम्य, संतुलन एवं व्यवस्था) को योग कहा जाता है। योगाभ्यासी सर्दी-गर्मी, सुख-दुख एवं मान-अपमान की स्थितियों में सम रहता है अर्थात् सन्तुलन नहीं खोता और विचलित नहीं होता। इसका अर्थ यह भी है कि सामाजिक, आर्थिक और व्यवस्था जनित क्षेत्रों में साम्य, संतुलन और सुव्यवस्था सामोहिक योग है जो साम्य मूलक है।
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