हमारे बचपन के दिनों में स्कुल में हमें पढना, लिखना, खेलना और बोलना सिखाया जाता था। लेकीन सुनने की सीख मुश्किल से ही मिलती थी, बल्कि ना के बराबर थी। प्रकृति नें हमें दो कान और एक मुहँ दिया है। बोलने से पहले मानव ने सुनना सिख लिया था। मनुष्य आसपास होने वाली घटनाओं को, आवाजों को सुनता था। जिस प्रकारसे मनुष्य विकसित हुआ वह कुछ संकेत, कुछ आवाज के माध्यम से आपस में संबंध प्स्थापित करने लगा।
हम जितना बोलतें हैं उससे जादा हमें सुनना चाहिए। दुसरे शब्दों में ये कहा जाय तो सुनना बोलने जादा मुश्किल होता है। हम आमतौर पर अधिक बोलकर और कम सुनकर प्रकृती अनादर करते है। एक वयस्क लगभग १२५ शब्द प्रति मिनिट बोल सकता है, और लगभग ४०० शब्द प्रति मिनिट सुन सकता है।
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सुनना एक ऐसी गतिविधी है जिसमें प्रतिक्रिया करने से पहले समझना शामिल है। जीवन में पूरी तरह से सुनना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। पूरे तनमन से सुनने से ज्ञान प्राप्त होता है। अगर आपका पूरा ध्यान किसी एक चीज पर केंद्रित है तो आप उस चीज को आसानी से समझ सकते हैं। पूरे ध्यान से सुनना एक तरह की साधना ही है। सुनने की प्रक्रिया को पूरी तरह से समझने के लिए, हमें पहले यह समझना होगा कि प्रतिक्रिया क्या है। हम जो सुनते और देखते हैं उस पर हम लगातार सोचते और विचार करते हैं।
बड़े हो जानेपर हम अपने आस-पास की घटनाओं को अवशोषित करते हैं, लेकिन अब हमारे पास एक नियमित विचार प्रक्रिया होती है। हमारी स्मृति में जो संग्रहीत है उसे हम ज्ञान मानते हैं। उस ज्ञान से हमारा अहंकार बढ़ता है। आपकी राय हर चीज के बारे में बन जाती है।
आइए पहले विचार करें कि प्रतिक्रिया की प्रकृति कैसे बदल सकती है। जब आप सभी से बात करते हैं तो आपको कुछ न कुछ कहना होता है। लेकिन यह बिलकुल भी नहीं है। आपकी पूर्वकल्पित धारणाएं, संस्कार और राय इसमें शामिल होती रहती हैं। सामने वाला बोल रहा है और यह समझे बिना कि वह क्या कह रहा है, वह अपनी राय बताने के लिए बहुत उतावले होते है। इसे पहले रोका जाना चाहिए। सामनेवाला अपने पूर्वाग्रह से बाहर बोलता है। इसलिए हम अपने पूर्वाग्रह के आधार पर अपनी राय देंगे। इसलिए प्रतिक्रिया देने से पहले शांत रहना जरूरी है।
स्थिति को समझना और फिर बोलना
पहली बात यह है कि चुपचाप से सुनना। चुपचाप बैठने के बाद आपको धीरे-धीरे एहसास होने लगेगा कि सामने वाला क्या कह रहा है और किस मकसद से। कभी-कभी कोई व्यक्ति बिना सोचे बड़बड़ा रहा होता है और उसका आपके उत्तर से कोई लेना-देना नहीं होता है। इसलिए जब आप ध्यान से सुनते हैं, तो आपको इस बात का सटीक अंदाजा होने लगता है कि दूसरा व्यक्ति किस बारे में बात कर रहा है, इसलिए आपको हर बात पर बात करने और टिप्पणी करने की जरूरत नहीं है। फिर हम कहते हैं कि स्थिति और अवसर के लिए क्या प्रासंगिक है, इसमें हमारे पूर्वाग्रहों को प्रस्तुत नहीं किया जाता है। अगर कुछ लोगों को वास्तव में आपकी राय की आवश्यकता है, तो वे खुद से बात करने के बाद थोड़ी देर के लिए शांत बैठेंगे और आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करेंगे। उस समय आप पूरी स्थिति,वास्तविकता को समझ सकते हैं और सही प्रतिक्रिया या राय दे सकते हैं।
हम विभिन्न तरीके से सुनते है
निष्क्रिय– एक कानसे सुनना और दुसरे से बाहर छोडना। हम शब्द सुनते हैं लेकिन हमार दिमाग भटकता है और कोई संभाषण हो नही पाता।
चयनात्मक– हम वही सुनते हैं जो हमें सूनना है।
सक्रिय– हमें जो सुनना होता है वो करीब से सुनते है। हम सुनते समय सभी बाधाओं को रोकने की कोशिश करते है।
चिंतनशील– यह तब होता है जब हम सक्रिय रूप से सुनते है और वक्ता क्या कह रहा ये भी स्पष्ट होता है तभी आपस में समझदारी से संभाषण कर सकते है।
जोरदार– सक्रिय रुप से सुनना और वक्ताओं की भावनाओं को समझना।
सुनने के लाभ
- योग्यता चीजों को समझने और जानने की क्षमता को बढ़ाती है।
- व्यक्ति जागरूक और समझदार हो जाता है।
- विद्यार्थी सीखने में होशियार हो जाता है।
- समाज बोलने और वक्ता के उद्देश्य को समझता है।
- उचित प्रतिक्रिया दी जाती है।
- मन शांत रहता है।
- विचार और भावनाएं ठीक से मेल खाते हैं।
- विवेक जागता है।
- व्यर्थ अंधविश्वासों मे विश्वास नहीं किया जाता है।
- वाणी ऊर्जा बर्बाद नहीं करती है।
- जीवन संवेदनशील हो जाता है।
हम सभी इसलिए बात करते हैं,की कोई हमें सुने। हमारा कहना कोई ठीक तरहसे सुने इसमें हमें पारंगत होने के लिए ७०/३० के नियम का पालन करना होगा। हमें ७०% सुनना चाहिए और सिर्फ ३०% बोलना चाहिए। सुनने से हमें बुहत लाभ होता है, आपस में विश्वास निर्माण होता है, दुसरों का सम्मान होता है, तनाव कम करते है, समस्याओं का समाधान करते हैं और हमारे चारों ओर अनुकुल वातावरण बन जाता है।
सुनना मतलब किसी का मूल्यमापन करना नही, कोई प्रतिक्रिया नही है, सोचना नही है, बोलना नही है, यह मैं नही हुँ, एवं वो नही है जो हमे बोलना है। इस प्रकारसे सुनना एक विनम्र गुण है, जो एक नई दुनिया प्रकट कर सकता है। सुनने से हमें सीखने में मदद मिलती है। सुनने से हमें सम्मान मिलता है।
शब्दों से परे सुनना
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, सुनना एक कला है। यानी एक बार जब हम हर बात पर प्रतिक्रिया देने से बचते हैं तो सुनने की कला ठीक से विकसित हो सकती है। अब जब हम जाग रहे हैं, कोई काम कर रहे हैं तो केवल आंतरिक कार्य सुनना है। ऐसे में विचार भी रुक जाते हैं क्योंकि मन में सोचना, सोचना हमारी याददाश्त और कल्पना है। सही ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ वास्तविक जीवन का अनुभव करने के लिए सूक्ष्म संवेदनाओं की आवश्यकता होती है जिसमें शब्दों, भाषा और विचार से परे सुनना शामिल होता है। ऐसा सुनना जीवन का एक बहुत ही सुखद अनुभव है।
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अजित भा. खाडिलकर
सचिव, टिळक महाराष्ट्र विद्यापीठ, पुणे
ajitbkhadilkar@yahoo.com
28 November 2021
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