लगभग तीन हजार वर्ष पहले महावीर जैन का और ढाई हजार पहले गौतम बुद्ध के विचार प्रचलित हुए। दोनों ने सनातन, वैदिक और पौराणिक विश्वास परम्पराओ के समानान्तर अपने सिद्धान्त प्रतिपादित किये, जिन्हे जैन धर्म और बौद्ध धर्म कहा जाने लगा। इन दोनों में ईश्वर स्वर्ग-नरक और दैवीय कृपा से मानवीय समस्याओ का हल ढूढ़ने की साधना को अनावश्यक बताया। जैनियो ने कर्मो में शुद्धता, अहिंसा, प्रकृति प्रेम और आत्मोकर्ष पर अपने विचार केन्द्रित किये। जबकि बौद्धों ने सम्पूर्ण जीवन को दुःखमय पाया और तृष्णा (असीम प्यार) को उसका कारण बताया। ईश्वर, आत्मा किसी ग्रंथ पर विमर्श से समस्या का हल नहीं होगा वास्तविक जीवन में मध्यम मार्ग अपनाना उचित है। जैन और बौद्ध विचार उलझन वाले नहीं और न तो काल्पनिक थे। उन विचारों में भेद-भाव, ऊँच-नीच और विषमता वाले विचार नहीं थे। इसीलिए ये धर्म भारत और भारत के बाहर भी अत्यधिक लोकप्रिय हुए। पौराणिक सनातन परम्परा में विश्वास रखने वाले विचारकों ने जब देखा कि बौद्ध धर्म अपनी सरलता और सहजता के चलते सबसे आगे निकल जाएगा तो उन्होने बुद्ध को विष्णु का नौवाँ अवतार घोषित कर दिया। बुद्ध जगत के अस्तित्व को क्षणभंगुर मानते रहे, जो हमेंशा एक समान नहीं रहता।
सभी जानते हैं कि सनातन धर्म का वैदिक रूप निर्गुण और पौराणिक रूप सगुण ईश्वर को मानता है। जैन और बौद्धो ने मूर्ति पूजा को नहीं माना किन्तु उनके शिष्यों ने इनकी मूर्तियों की ही पूजा शुरू कर दी, जो आज भी चल रही है। वैदिक सिद्धांत मूर्ति पूजा को मान्य नहीं ठहराता किन्तु पौराणिक सनातन धर्म मूर्ति पूजा को भी उचित ठहराता है। ऐसे परिवेश में तेरह सौ वर्ष पूर्व केरल में शंकराचार्य पैदा हुए जिन्होंने पाँच वर्ष की आयु से ही ज्ञानार्जन शुरू कर दिया, केवल बत्तीस वर्ष ही उन्होने ज्ञान के क्षेत्र में अपना योगदान करते हुए केदारधाम में ब्रह्मलीन हो गये। केदारधाम से लेकर रामेश्वर धाम तक बारह ज्योतिर्लिंगों के द्वारा अपने ज्ञान प्रकाश को इस प्रकार से फैलाया कि उन्हें विष्णु के अवतार की तरह शिव का अवतार समझा जाने लगा। जबकि पौराणिक मान्यता के अनुसार शिव का अवतार नहीं होता और वेद किसी भी अवतार को मान्यता नहीं देते। शंकर ने सभी उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र एवं गीता का अपने तत्वदर्शी सिद्धांत के अनुसार भाष्य कर के आचार्य हो गये। शंकराचार्य ने अपने वेद व पुराण समन्वित नया सिद्धांत दिया जिसके चलते वे जगदगुरु कहलाये। उनका सिद्धांत कहता है कि केवल ब्रह्म ही सत्य है, जीव और ब्रह्म एकही तथा जगत मिथ्या (झूठ या अनस्तित्व वाला अर्थात जो है ही नहीं) है। जिसे उन्होने माया कहा। शंकराचार्य के अनुसार अपना निज स्वरूप ही ब्रह्म है अर्थात् अहं ब्रह्माष्मि। माया का मतलब समझाते हुए शंकराचार्य ने कहा यह जगत वैसा ही है, जैसा सपने में भी एक जगत दिखाई देता है जो जागते समय लुप्त हो जाता है। इसी प्रकार जो जगत दिखाई दे रहा है वह ब्रह्म की अनुभूति होने पर सपने की तरह लुप्त हो जाता है। जो हम अपने जीवन में करते हैं वह व्यवहारिक है। ब्रह्म को जानने के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं क्योंकि जब जीव ही ब्रह्म है तो मुक्ति का प्रयास अनावश्यक है इसलिए कोई मुक्त भी नही होता।
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शंकराचार्य का यह सिद्धांत अनोखा लगता है किन्तु इस सिद्धांत ने लोगो को जैन व बौद्ध धर्म से पुनः अलग होकर वेद और पुराणों के धर्म से जोड़ने का काम किया। शंकराचार्य ने अवतार और मूर्ति पूजा का खंडन नहीं किया। अपितु विश्वास की दृढ़ता पर बल दिया जब जीव ही ब्रह्म है तो निर्गुण और सगुण का प्रश्न ही कहा उठता है? क्योंकि अपना स्वरूप निर्गुण है और रूप सगुण। जब जगत मिथ्या है तो जगत में कर्त्तव्य का पालन करते हुए विश्वास पूर्वक रहना और जगत के व्यवहार में अपने को उपयोगी सिद्ध करना भी उचित है। शंकराचार्य के ऐसे सिद्धांत दुनिया को बहुत पसन्द आये। भारतीय चितंन की जब बात होती है तो उसमें शंकराचार्य के सिद्धांत बाजी मार जाते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने अपने सुप्रसिद्ध शिकागो के धर्म सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए शंकराचार्य के सिद्धांत को ही आधार बनाया था जिसने वहाँ चमत्कार भी पैदा किया और आधुनिक जगत के लिए इन सिद्धांतो की आवश्यकता भी बता दी।
चाहे जो भी हो शंकराचार्य ने यह उद्घोष तो कर ही दिया कि शक्ति, ज्ञान और आनन्द की सम्पूर्णता ब्रह्म है जो आत्म स्वरूप में पूर्ण रूप से प्रत्येक मानव में विद्यमान है जिसकी खोज होनी चाहिए चाहे वह बाहरी अवलम्ब से हो या सारे अवलम्ब छोडकर हो। शंकराचार्य युवा पीढ़ी के लिए इस दृष्टि से सदैव प्रासंगिक बने रहेंगे कि पूर्ण ब्रह्म उसके भीतर है जिसे खोजने और उसे प्रबुद्ध करने की आवश्कता है।
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शिव जी पाण्डेय “रसराज”
05 नवंबर 2021
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