वेदों और उपनिषदों में प्रकृति अर्थात् भौतिक जगत, आत्मा अर्थात् विभिन्न नाम रूपों में जीवन को धारण करने वाला और सम्पूर्ण में चेतन स्वरूप में विद्यमान ब्रह्म तत्व को अनादि और अनन्त माना गया है। इनमें प्रकृति, जड़ और शेष दोनों चेतन कहे गये। प्रकृति अपने नियमों के अनुसार नाना प्रकार के आकार-प्रकार में जन्म लेती, परिवर्तित होती हुई मूल अवस्था में आती जाती रहती है। विज्ञान भी इस विचार धारा से सहमत है और वह भी यह मानता है कि भौतिक तत्व अविनाशी होते हैं। परिवर्तन विनाश का सूचक नहीं होता। प्रकृति सदैव एक समान नहीं रहती, इसलिए अनित्य कहलाती है। इसका ज्ञान भी कर लेना कोई हँसी-मजाक नहीं होता। इस सत्य को जैनियों ने परखा और कहा कि हम किसी विषयों में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते, इसलिए शायद (स्याद) से सम्भव है। हम किसी निश्चय का संकेत पा जाए, इसके लिए उन्होंने शायद है, शायद नहीं है शायद अव्यक्त है, शायद है, शायद नहीं है और शायद अव्यक्त है, शायद है और अव्यक्त है, शायद नहीं है और अव्यक्त है, शायद है शायद नहीं है और शायद अव्यक्त है, के बहु पक्षीय चिंतन को सामने लाया। बौद्धों ने सबकुछ को अर्थात् हर अवस्था, परिस्थिति, देश, काल, संवेदना, सोंच आदि को दुःखमय पाते हुए कहा कि जो कुछ भी है वह क्षणभंकुर है, अनित्य है, अनात्म है, और सतत् परिवर्तनशील है। नदी में स्नान करने से पूर्व नदी में स्नान करते समय और नदी में स्नान करने के बाद नदी और स्नान करता बदल गये रहते हैं। इसको उन्होंने अपने महाधर्म चक्र प्रवर्तन में बताया। बुद्ध के अनुसार जगत की उत्पत्ति शून्य से हुई उसकी स्थिति अनित्य है और उसका समापन भी शून्य में हो जाएगा। बुद्ध ने ईश्वर और आत्मा के भी अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया। इन विषयों पर विमर्श को भी अनावश्यक कहा क्योंकि इनको जान लेने पर भी दुःख की जड़े समाप्त नहीं हो सकती। दुःख की जड़ तो हमारी तृष्णा है जिसके चलते पुनर्जन्म भी होता है। नव बौद्ध भीमराव अम्बेडकर ने पुनर्जन्म को भी अमान्य कर दिया।
शंकराचार्य ने जगत के सम्बन्ध में वेद के सिद्धान्तों से अलग जैनियों के स्याद वादी सिद्धांत से मिलते जुलते बौद्धों के शून्यबाद की भूमि पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जिसे विवर्तबाद कहते हैं । विवर्त से तात्पर्य ऐसी आभासित सत्ता से है जो दिखाई तो देती है किन्तु वास्तव में उसका अस्तित्व नहीं होता है जैसे आकाश में इन्द्र धनुष दिखाई तो देता है किन्तु वास्तव में उसका अस्तित्व नहीं होता शंकराचार्य ने ब्रह्म के अस्तित्व अद्वैत कहा जिससे तात्पर्य यह है कि ब्रह्म सत्ता के अलावा कोई दूसरी सत्ता है ही नहीं, जीव और ब्रह्म को एक ही माना। जगत को उन्होंने ब्रह्म सत्ता में एक आभासित सत्ता का विचार दिया, जिसे उन्होंने प्रासिभासित सत्ता कहा। यह सत्ता एक ओर ब्रह्म में विपर्त है तो दूसरी ओर जीव को भ्रमित किये रहती है। जीव उेसी आभासित सत्ता को सत्य मान लेने की भूल कर बैठता है। यह आभासित सत्ता वास्तव में अस्तित्व शून्य होती है किन्तु वास्तविक जैसी प्रतीत होती है। यह माया है। ‘मा’ अर्थात् नहीं ‘या’ अर्थात् जो। जो है ही नहीं वह प्रतीत हो रही है, इसलिए वास्तव में वह माया है। जीव इस माया के चलते न तो आत्मबोध कर पाता है और न तो जगत ही असत् स्वरूप् को ही समझ पाता है। शंकराचार्य ने इस माया रूप जगत को मिथ्या कहा। मिथ्या से तात्पर्य अस्तित्व शून्यता से है जैसे आकाश का इन्द्र धनुष। शंकराचार्य ने अपने सिद्धांत के प्रतिपादन में जगत के मिथ्या होने पर बहुत जोर दिया। उनका जगत को मिथ्या कहना उनके विशेष दृष्टिकोण को प्रकट करता है। उनका कहना है कि जगत के मिथ्या होने का सिद्धांत प्रमाणित तब होगा जब जीव पारमार्थिक सत्ता की अनुभूति कर ले। अँधेरे (अज्ञान) के चलते रस्सी को साँप की तरह हम देख लेते हैं अर्थात् रस्सी में हमें साँप का आभास होता है किन्तु प्रकाश हो जाने पर सर्प का आभास स्वतः मिट जाता है, रस्सी अपने मूल स्वरूप रस्सी में प्रतीत होने लगती है। ब्रह्म के सम्बन्ध में सुना हुआ ज्ञान माया से मुक्त होने का आधार उत्पन्न करता है और ब्रह्म का बोध हो जाने पर जगत का मिथ्यात्व भी प्रकट हो जाता है जिस प्रकार जगने पर स्वप्न का जगत स्वतः मिट जाता है।
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शंकराचार्य ने माया के स्वरूप का वर्धन करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। और माया को अनिर्वच नीय घोषित कर दिया। माया न सत् है, न असत् है न दोनों है। माया न भिन्न है, न अभिन्न है और न दोनों है। इस प्रकार शंकराचार्य ने माया का स्वरूप अनिर्वचनीय बताया और जगत को मिथ्या कह कर छोड़ दिया।
पुराणों और महाभारत की रचना शंकराचार्य के प्रादुर्भाव से हजारों वर्ष पहले हो चुकी थी। शंकराचार्य ने अपने मत के समर्थन में अनेक ग्रंथों का भाष्य अपने सिद्धांत के अनुरूप किया। ऐसा नहीं समझना चाहिए कि शंकराचार्य के माया व मिथ्यावादी सिद्धांतों का खंडन नहीं हुआ। फिर भी जगत के स्वरूप पर विज्ञान तो अपनी व्याख्या कर ही रहा हैं। शंकराचार्य के सिद्धांत से पहले विश्व पटल पर वाइबिल, कोरान और चीनी मनीषियों के विचार भी आ चुके थे। भारत में भी शंकराचार्य से पूर्व और बौद्धों के पश्चात् सिद्धांतों के विवाद बने हुए थे। शंकराचार्य ने विवादों के मध्य अपना मत प्रतिपादित किया जो निर्विवाद नहीं माना जा सकता। महर्षि चार्वाक् ने तो जगत को ही सत्य माना और ईश्वर, आत्मा, दिव्यवाणी, धर्माचरण आदि को ढकोसला कहा। उनके अनुसार सुख भौतिक जगत में है जो भौतिक संसाधनों से ही प्राप्त किया जा सकता है। जगत को असत्य कहने वाले हमें मूल समस्या से भटका रहे हैं और काल्पनिकता में उलझा कर खाने कमाने का धंधा पैदा कर रहे हैं।
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शिव जी पाण्डेय “रसराज”
06 नवंबर 2021
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अर्ध-सत्य।