भारत के आदि धर्म का आधार वेद माना जाता है। वेद के सम्बन्ध में इतिहास वेत्ताओं का मानना है कि ऋग्वेद सबसे पुराना है। मुद्रित पुस्तक के रूप में वेद बहुत बाद में आया, जब लिपि का विकास हुआ और मुद्रण सुविधा उपलब्ध हुई। अभी तक बहुत प्रयास करने पर भी यह ज्ञात नहीं हो सका कि वेद का दिव्य ज्ञान ऋषियों को कब प्राप्त हुआ। माना जाता है कि चार ऋषियों ने वैदिक मंत्रों को समाधि अवस्था में देखा और उन्हें अपने शिष्यों को सुनाया। इस प्रकार ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद एवं सामवेद तथा उनके छः उपांग परम्परा से पीढ़ियों दर पीढ़ियों को प्राप्त होते रहे। यह भी माना जाता है कि सृष्टि के आरम्भ काल में यह ज्ञान प्राप्त हुआ जिसके प्रारूप पर ब्रह्माण्ड की रचना और उसकी आवश्यकताओं का मूलज्ञान इनके द्वारा उपलब्ध हुआ। यदि वैदिक मंत्रों और उसकी भाषा को देखा जाय तो यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा कि इस स्तर का ज्ञान-विज्ञान हजारों साल की खोज-बीन पर मिल सकता है। यदि वेदों के ज्ञान को मानवीय प्रयत्नों के आधार पर निर्मित माना जाय तो इनकी रचना के लिए लाखों वर्ष भी कम ही होंगे। इस वैदिक ज्ञान को किसी पुरुष द्वारा अध्यवसाय के द्वारा प्राप्त हुआ न मानकर इसे अपौरुषेय कहा जाता है। इस ज्ञान को निगमित और आप्त माना जाता है। यह स्वतः प्रमाण है जिसके लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। आदि ज्ञान होने के चलते, इसीलिए इसमें कोई इतिहास नहीं है। यज्ञ, उपासना और तप के द्वारा सम्पूर्ण जीवन संचालित होने, सत्तकर्मों से स्वर्ग और दुष्कर्मो से नर्क प्राप्त होने, यज्ञ के माध्यम से सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होने, कर्मो की स्वतन्त्रता होने, पुनर्जन्म होने तथा जड़ प्रकृति, चेतन आत्मा और पूर्ण ब्रह्म सत्ता को अनादि और अनन्त माना गया है। वैदिक चिंतन धर्म का कोई प्रवर्तक नहीं। यही अनादि ज्ञान वैदिक धर्म माना जाता है।
धर्म के सम्बन्ध में विचारको का मत है कि धर्म किसी पर थोपा नहीं जाता अपितु उसे धारण किया जाता है। जाड़ा यदि परेशान कर रहा हो तो हम एक कम्बल ओढ़ सकते हैं अर्थात् कम्बल को धारण कर सकते हैं। जाड़े से राहत पाने के लिए कम्बल का ओढ़ना धर्म है, यह भी जानना आवश्यक है कि कम्बल तभी हमें जाड़े से राहत पहुँचायेगा जब हम कम्बल को सुरक्षित रखेंगे। इसी को कहा जाता है कि वही धर्म हमारी रक्षा करता है, जिस धर्म की हम रक्षा करते हैं। विभिन्न विचार धाराओं का विश्लेषण करने के पश्चात् कृष्ण ने अर्जुन को धर्म के बारे में समझाते हुए कहा कि जिस धर्म को हम धारण करते हैं वही हमें त्राण देता है। इसीलिए उसी धर्म में मृत्यु श्रेयष्कर है, दूसरों का धर्म भयावह। धर्म वास्तव में दृष्टिकोण का क्रियात्मक रूप होता है, इसीलिए धर्म साधन है साध्य नहीं। अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, धैर्य धारण करना, क्षमा करना, भोग प्रवृत्ति से विरत रहना, तपश्चर्या अपनाना, दान देना, सेवा करना, और अपने अभीष्ट की विस्मृति से बचना धर्म के लक्षण बतलाये गये हैं। दुनिया का कोई भी धर्म ऐसा नहीं जो इन लक्षणों के निरूद्ध हो। कृष्ण ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए धर्म को अपनाने और स्वतन्त्रता पूर्वक फलाशा से रहित होकर कर्म करने का उपदेश जो अर्जुन को दिया, उसका सीधा और स्पष्ट आशय यह है कि हम अपने कर्त्तव्य पालन के माध्यम से अपने जीवनादर्श को संकल्प के साथ प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यदि किसी के ईश्वर तत्व की प्राप्ति करनी हो तो उसे सभी धर्मो का त्याग करके बिना शर्त ईश्वर की शरण में जाना होगा। व्यवहार में कर्त्तव्य पालन धर्म है और ईश्वर प्राप्त के लिए सभी धर्म का त्याग अनिवार्य है। विडम्बना यह है कि दुनिया में अन्य भाषाओं में विभिन्न स्थानों पर, अलग-अलग काल खण्डों में विशिष्ट जन को दिव्य वाणी, वेद जैसी प्राप्त हुई किन्तु उन्होंने उस दिव्यवाणी को आधार बनाकर विशेषधर्म का प्रवर्तन किया, धर्म का उद्देश्य निर्धारित किया और उसके लिए अनुकूल साधक निर्दिष्ट किए।
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यह निर्विवाद नहीं है कि वैदिक ज्ञान भारत में ही प्रगट हुआ। वैदिक ज्ञान को अपनाने वाले आर्य कहे गये, जिनके भारत में मूल रूप से होने, मध्य एशिया से यहाँ आने या उत्तरी ध्रुव से भारत भूमि पर आने में मतभेद हैं। यदि आर्य अपने वैदिक ज्ञान के साथ बाहर से यहाँ आये तो इस भूमि का कोई न कोई धर्म दर्शन रहा होगा और यदि आर्य यहीं के थे तब भी भारत में अन्य विचार पल रहे थे। सम्भव है कि आर्य और अनार्थ दोनों ही भारत के ही हो, यदि इन्हें विदेशी माना जाय तो यहाँ के मूल निवासी द्रविण जैसे हो सकते हैं। द्रविण संस्कृति भी बहुत पुरानी मानी जाती है। समय के साथ दोनों विचार धाराएँ मिलती जुलती गईं और भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह में अपना योगदान करती रहीं। वैदिक धर्म सनातन आर्य धर्म के रूप में प्रतिष्ठित रहा जिसमें ज्ञान व विज्ञान का भण्डार है और स्पष्ट तथा तर्क संगत है। वैदिक धारा का एक बहुत बड़ा भाग उपनिषद् हैं जिनमें यज्ञादि कर्मकांड पर ध्यान न देकर आत्म चिंतन पर विशेष बल दिया गया है और प्राकृतिक शक्तियों का अनुसंधान करने एवं उनका कल्याण कारी उपयोग करने के लिए रास्ते खोले गये हैं। केन्द्रित तत्व विवेचन को भौतिक विज्ञान में मान्यता मिली है जिसे उपनिषदों में आत्म चिंतन कहा गया है। यह चिंतन का न्यूक्लियस बोध कराता है जिसके इर्द-गिर्द मन (गति) बुद्धि, स्थिति और अहंकृति (मूल प्रकृति) के रूप में जाना जाता है। वेद और उपनिषदों में ब्रह्म तत्व और आत्म तत्व चैतन्य हैं और ज्ञान तथा आनन्द के भण्डार हैं। वेद एवं उपनिषदों की भाषा वैदिक है जो संस्कृत से अलग है किन्तु संस्कृत का मूल है।
लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास ने पुराणों की रचना की। 18 पुराण उन्होंने रचे, महाभारत उन्होंने लिखा, ये ग्रंथ साहित्यिक दृष्टि से विश्व साहित्य जगत में अद्वितीय हैं। पुराणों में वैदिक सिद्धांतों की रूपकात्मक प्रस्तुति की गई और ज्ञान-विज्ञान के साथ जीवन में भक्ति (डिवोशन) को भी महत्व दिया गया। एक नया धर्म भी अस्तित्व में आया, जिसे भागवत धर्म की संज्ञा दी गई। वेदों और उपनिषदों के किसी दर्शन को खंडित करने के बजाय, उसके चिंतन में अवतार, प्रतिभा पूजा और ईश्वर तत्व को कर्म का फलदाता और प्रेरक, भक्तों की चाह के अनुसार भगवत तत्व को अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के अतिरिक्त भक्ति प्रदाता भी कथानकों के माध्यम से सिद्ध किया गया है। देव संस्कृति और असुर संस्कृति के मध्य द्वन्द्व, हर पुराण के केन्द्रित देव को अनादि प्रतिष्ठित करना, प्रतिमा अर्थात् सिद्धांतों के कलात्मक आकार की पूजा करने के लिए आमंत्रित करना और अपनी भौतिक तथा अभौतिक मांगों की पूर्ति का साधन मानकर, विश्वास के साथ उपासना और पूजा करना, इनके द्वारा जोड़ दिया गया। अब सनातन वैदिक धर्म तो था ही, एक और पौराणिक सनातन धर्म अस्तित्व में आ गया। निराकार और साकार, निर्गुण और सगुण तथा ज्ञान और भक्ति परक दो धाराएँ विज्ञान और विश्वास पर आधारित फूट पड़ीं, जो अब भी चल रही हैं।
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शिव जी पाण्डेय “रसराज”
05 दिसंबर 2021
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धर्म की अवधारणा सहज शब्दो मे करना मुश्किल है, ऋग्वेद यजुर्वेद और जितने भी वेद और उपनिषद है प्रकृति पूजा के बाद आए, वेदों की उत्पति समाज में एकरूपता और सामाजिक कार्यों के साथ परिवार और कुल के साथ अन्य समाज में रहने वालों लोगो के क्रियाकलाप के लिए ही बना, कालांतर में बहुत सारे सुधार हुए, इसमें गौतम बुद्ध का अहम योगदान रहा जिन्होंने ने कुरूतियो के खिलाफ जम कर बोला अन्यथा बिना स्वाद और नमक का ही वेद बना रहता, अभी भी शादी और अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में कुछ प्रथा चली आ रही है जिन्हे समाज आज भी चाह कर नही समापत कर पा रहा, निश्चय ही वेदों ने एक महत्वपूर्ण दिशा निर्देश दिए परंतु हिंदू धर्म एक अविरल बहती हुई नदी समान है जिसमे नए प्रथा का स्वागत और जिर्ण प्रथाओं का समापन होना बाकी है