बहुत से विचारक, जब साम्यवाद की समीक्षा करते हैं तो यह पाते हैं यह लगभग पूरे विश्व में अपनी जड़े खो चुका है। किंतु आज भी हर शहर, संगठन में साम्यवाद की वकालत करने वाला कोई ना कोई मिल ही जाता है, तथा वह अपने मनगढ़ंत तथ्यों के आधार पर साम्यवाद की बर्बादी के लिए साम्यवाद की साम्य नामक दिशाहीन विचारधारा को दोष ना देकर उसमें भी पूंजीपतियों का हाथ बता कर अपनी विचारधारा को स्वच्छ बताने का प्रयास करता नजर आता है। अगर पूंजीपति लोगों में इतनी ताकत है, तो आपके पास भी तो है, आपकी भी तो सरकार रही है सत्ता आपके पास भी तो थी, फिर भी विश्व में कई जगह अगर आपकी हानि हुई है तो ये साम्यवादी लेखकों के लिए आत्मचिंतन का विषय है।
आमलोगो ने उन सभी तर्कों को मानने से इनकार कर दिया जो वर्तमान के साम्यवादी लेखक साम्यवाद की विचारधारा की बर्बादी के लिए दोषी बता रहे थे।
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अचानक (जैसा कि अक्सर होता) है, साम्यवादीयो ने अब अपनी विचारधारा को जिंदा रखने के लिए हिंदू धर्म का सहारा लिया है। जी हां आपने सही पढा है, जिस हिंदू धर्म को गालियां देते पिछले 100 वर्ष गुजरे हैं, आज उसी हिंदू धर्म के सिद्धांतों से तालमेल करने का यह नया खेल शुरू कर दिया गया है, इसके पीछे सिर्फ एक ही मानसिकता है कि येन केन प्रकारेण अपनी विचारधारा को जिंदा रखा जाए। इन्ही बहुत से तरीकों में सबसे पहला तरीका है एक मनगढ़ंत विचार, जिसके आधार पर यह साबित करना कि साम्यवाद और हिंदू धर्म का संतुलन-वाद एक ही हैं अलग नहीं है। और अपने मनगढ़ंत तथ्यों द्वारा उनकी तुलना करके एक जैसा स्थापित करना। उनके तर्कों के हिसाब से साम्यवाद ही संतुलन-वाद है और संतुलन-वाद हिंदू धर्म की सर्वमान्य अवधारणा है, इस मतलब से साबित होता है कि हिंदू धर्म साम्यवादी है।
अब उनके इस तर्क को बीजगणितीय समुच्चय सिद्धांत का प्रयोग करके अगर लिखा जाए तो यह कुछ इस तरीके से लिखा जा सकता है –
A=B,
B=C तो फिर
A=C
जहां A= हिंदू धर्म , B= संतुलनबाद C= साम्यवाद है ।
लेकिन ये अर्धसत्य के आधार पे पूरा सिद्धांत स्थापित करने जैसा है। किंतु यहां बहुत से ऐसे कारण हैं जो यह समानता स्थापित करने वाले साम्यवादी लेखक भूल जाते हैं जैसे कि साम्यवाद की परिभाषा जो कार्ल मार्क्स लेनिन या अन्य महानुभाव ने दी थी नीचे दी गई है-
“साम्यवाद यानी समानता” अमीर गरीब का कोई अंतर ही न हो, सब एक हो।
और ज्यादा अगर समझे तो, समानता का अर्थ है जो आपके पास है वह मेरे पास है । तेरे पास मुझसे ज्यादा ना हो और मेरे पास तुझे से कम ना हो, तथा हम लोगों में कोई विभिन्न वस्तुओं का होना स्वीकार्य नहीं है। इसको ऐसे समझिए कि अगर मेरे पास कार है तो आपके पास भी कार है। यदि आपके पास बंगला है तो मेरे पास भी बंगला होना ही चाहिए। इसी लुभावने विचार से ही सारे मजदूर वर्ग और गरीब वर्ग को अपनेसे जोड़ा इस विचारधारा ने।
अगर और आगे समझना है तो यह सोचिए साम्यवाद शुरू कब हुआ? फ्रांस की क्रांति से या रशियन क्रांति से या उससे भी पहले? मूलतः साम्यवादी विचारधारा का आधार भौतिकवाद या भौतिकवादी वस्तुएं ही है इस विचारधारा का आध्यात्म या जीवन के उत्थान से कोई संबंध नहीं है।
वहीं अगर हिंदू धर्म के संतुलन बाद को देखें, तो संतुलन का अर्थ होता है जो कुछ भी आपके पास है उसका संतुलन ना ज्यादा और ना कम। अर्थात इस में समानता नहीं है, इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि हिंदू धर्म के अनुसार किसी भी व्यक्ति में 3 गुण होते हैं
सत, रज, तम।
अब अगर हिंदू धर्म साम्यवादी है (जैसा कि साम्यवादी लेखक कह रहे है अभी) तो वो इन तीनों गुणों को एक जैसा परिवर्तित कर देगा, अर्थात, या तो तीनों गुण सम होंगे या रज होंगे या तम अर्थात किन्ही दो को खतम करके एक की ही स्थापना। किन्तु हिंदू धर्म संस्कृति इन तीनों गुणों को बरकरार रखती है और इन तीनों विभिन्नताओं वाले गुणों में संतुलन रखना सिखाती है।इसका सीधा मतलब हुआ की “संतुलन” और “साम्य” ये दोनो अलग अवधारणाएं हैं।
अब वापिस फिर से साम्यवाद की तरफ बात करते हैं , साम्यवाद के प्रचारक या उसको शुरू करने वाले लोगों ने ही कहा था कि इस दुनिया में अमीरी और गरीबी का फर्क नहीं होना चाहिए। इस विश्व के सारे संसाधन सबको बराबर मिलना चाहिए। अब सब में बराबर बांटना साम्य या समानता लाना हो सकता है, किंतु संतुलन नही।
साम्यवाद का विचार इस दुनिया में किन परिस्थितियों में पैदा हुआ था, अगर इस लेख को पढ़ने वाले लेखक थोड़ा ध्यान से शोध करेंगे तो पाएंगे कि या तो वो कुलीन तंत्र के खिलाफ थे, या फिर राजतंत्र के खिलाफ, किंतु कोई भी लोकतंत्र उस समय नही था, जिसके खिलाफ ये खड़े हुए हो, क्योंकि ये विचार सिर्फ गरीबों के लिए और उनका हक उनको दिलवाने के लिए ही शुरू हुआ था, और इसीलिए पूंजीपतियों के खिलाफ ये हमेशा रहे हैं। उदाहरण के लिए फ्रांस की क्रांति के समय वहा लुई का शासन था, और क्रांति का कारण उसकी पत्नी का वक्तव्य था जिसमे उसने कहा था कि – अगर जनता को ब्रेड नही मिल रही तो वो केक खाए। ये कुछ उस तरीके की बात थी जिसमे रानी को ज्ञात ही नही था की ब्रेड केक से सस्ती होती है, अगर ब्रेड नही खरीद पा रहे तो केक कहां से खरीदेंगे। और रूस में उस समय जार का शासन था। जार एक क्रूर शासक था उस समय के इतिहासकारों ने ऐसा ही लिखा है।
कुल मिला कर, सताए हुए/ गरीबों को एक स्वपन दिया गया समता का, समानता का किंतु संतुलन का नही, क्योंकि इन दोनो राजाओं को मार दिया गया और उसके बाद साम्यवादी शासन की स्थापना की गई। बहरहाल जानने वाली बात ये है की इन वादों के साथ आने वाली सरकार भी, बाद के कई सालों में भी गरीबी दूर नही कर पाई उल्टा इसने एक नए किस्म के अपराध, जिसे हम संगठित अपराध कह सकते है ,को जन्म दिया।
एक बात जो समझने वाली है की जैसे जैसे लोकतंत्र की स्थापना की गई विश्व में, धीरे धीरे साम्यवाद अपनी जगह खोता चला गया, और जो एक समय पूरे विश्व में काबिज था अब सिर्फ कुछ एक या दो देशों में ही बचा है जहां इसके नाम से ही सरकार है।और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि लोकतंत्र में एक गरीब भी उच्चतम पद को प्राप्त कर सकता है या कुछ बन सकता हैं। गरीबों को रास्ता मिल गया – लोकतंत्र, इसलिए साम्यवाद को धीरे से गरीबों ने ही किनारे लगा दिया।
साम्यवाद वैसे भी अपने काम हिंसक तरीकों को इस्तेमाल करके करवाता है या किसी दूसरे का नुकसान करवा के करवाता है, जिसमे पहला तरीका है हड़ताल, इस तरीके को प्रयोग से बंगाल , बिहार और उत्तर प्रदेश के बड़े बड़े उद्योग पतियों को वहां से बाहर निकल कर, दूसरे राज्य में या देश में जाने को मजबूर कर दिया।
जो वृद्ध लोग है इस समय उनको याद होगा की उत्तर प्रदेश, बिहार एवम बंगाल में १९८०-८५ में काफी बड़े बड़े उद्योगपतियों की फैक्ट्री थी। कानपुर उत्तर भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था। अगर साम्य बाद संतुलन के जैसा होता तो उद्योग पतियों से लड़ता नही, सामंजस्य बिठालता और मजदूर के हित साधता और फैक्ट्री बंद न होने देता, किंतु अफसोस ऐसा कुछ भी नही हुआ।अंतर साफ है क्यों नहीं हुआ। किंतु बाद में साम्यवादी प्रभाव के बड़ने से मजदूर हड़ताल करने लगे, पगार ज्यादा और काम के घंटे कम की मांग बलवती हुई, फलतः उद्योग अन्य राज्यों में गए और इन राज्यों में बढ़ी सिर्फ बेरोजगारी।
अगर साम्य बाद संतुलन के जैसा होता तो उद्योग पतियों से लड़ता नही, सामंजस्य बिठालता और मजदूर के हित साधता और फैक्ट्री बंद न होने देता, किंतु अफसोस ऐसा कुछ भी नही हुआ। अंतर साफ है क्यों नहीं हुआ?
बीज गणित सूत्र से अगर इसको समझे तो –
साम्यवाद = रुकावट,
रुकावट = अस्थिरता/नुकसान,
अस्थिरता/नुकसान = उद्योग का पलायन
उद्योग का पलायन = बेरोजगारी,
अर्थात “साम्यवाद = बेरोजगारी”
ये एक सीधा संबंध है जो मैंने अपने लेख में कुछ तथ्यों के साथ स्थापित करने की कोशिश की है। सबसे बड़ी बात ये सब इतिहास में दर्ज है, इसलिए साम्यवादी इसे नकार नहीं सकते, इसीलिए इसका दोष पूंजीपति के सर पे मढ चुके है। किंतु बाद में मजदूरों को भी समझ में आ गया और बहुत से मजदूरों ने इनका साथ छोड़ दिया।
भारतीय संस्कृति साम्यवादी नही है, अपितु संतुलन वादी है। ये सभी का विकास करती है, जो भी इसकी शरण में आता है। इसी कारण से भारतीय संस्कृति के सानिध्य में सभी धर्म फले और फूले। विविधता में एकता यही हिंदू संस्कृति की पहचान है और विविधता में एकता “संतुलन” तो हो सकता है किंतु “साम्यता” नही।
आपकी टिप्पणियों और विचारों का स्वागत है!
Prashant “Tarang”
19 जनवरी 2022
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