बलिया : गणित व विज्ञान के प्रवक्ता होने के बावजूद हिंदी साहित्य में रूचि होना, उसे लिखकर उपन्यास और कथा के रूप समाज की कुरीतियों को बताना एक कला है. लेकिन बहुत कम लोगों के पास ऐसी अद्भुत काला मिलती है. ऐसी ही कला के धनी जिले के साहित्यकार, उपन्यास लेखक व व्यंग्यकार अवकाश प्राप्त प्रवक्ता रमेश चंद श्रीवास्तव है. जिन्होंने अब तक दर्जनों पुस्तकों का संपादन अपनी कलम से किया है.विज्ञान व गणित के बीच हिंदी साहित्य में रूचि रखने वाले रमेश चंद वास्तव में गुरूजी की भूमिका आज भी निभा रहे हैं.
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रसड़ा तहसील के डेहरी निवासी अवकाश प्राप्त विज्ञान प्रवक्ता रमेश चंद श्रीवास्तव शहर के आनंद नगर में रहते है. उन्होंने नगर के टाउन इंटर कॉलेज में विज्ञान प्रवक्ता के रूप काफी लम्बे समय तक सेवा देने के बाद अवकाश प्राप्त किया. उन्होंने अब तक कई पुस्तकों का संपादन किया है. कुरूप वधु, बंटवारा, एवं बालम परदेशी को मैंने पढ़ा है. इसके बाद सरिता नामक उपन्यास भी गुरूजी से मिल गया. इस उपन्यास में उन्होंने मानवचरित्र का चित्रण किया है। यह उनकी सत्रहवीं कृति उपन्यास “सरिता” है. जिसमें सदियों से अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही स्त्रियां आज सामाजिक संबंधों को नये सिरे से परिभाषित कर रही हैं।
पाश्चात्य देशों में चले ‘मीटू’ आंदोलन का प्रभाव हमारे देश में भी देखने को मिल रहा है। ‘सरिता’ उपन्यास की प्रमुख पात्र सुन्दर एवं सुशील बहू सरिता पहली संतान लड़की होने के कारण सास की नजरों से गिर जाती है। सास अपने लड़के सुमंत को दूसरा विवाह के लिए कहती हैं। मां और पत्नी के विवाद से आहत सुमंत संसार से ही अंतिम विदायी ले लेता है। पुत्र-वियोग में मां भी जल्दी ही संसार छोड़ देती हैं।विवाह के तीन वर्ष के अन्दर ही सरिता विधवा हो जाती है। विधवा के जीवन में पग-पग पर काटें ही हैं। वह अपने को खेती-गृहस्थी से जोड़कर जीवन-यापन कर रही है। इसी बीच हरवाहे शीतल से उसका संपर्क होता है और लड़के को जन्म देती है। बिरादरी के मुखिया, बालेश्वर पंचायत बुलाकर उसे गांव से निष्कासन की सजा देना चाहते हैं, लेकिन पहलवान और सजातीय युवक बब्बन के विरोध के चलते सरिता के साथ दुष्कर्म करने वाले का पता लगाकर गांव से निष्कासन की बात तय होती है।
बब्बन संरक्षक के रूप में सरिता के साथ ‘लिव इन रिलेशन’ में रहने लगता है। उसके संपर्क से सरिता दूसरे बच्चे को भी जन्म देती है, लेकिन बब्बन के आतंक के चलते किसी को विरोध की हिम्मत नहीं पड़ती है।हरवाहा, शीतल डरकर गांव छोड़ देता है। राजधानी में आकर राजनीति में अपना भविष्य तलासने का प्रयास करता है। वह विधायक और बाद में मंत्री भी बन जाता है। उसने शहर में ही वृद्धाश्रम की स्थापना की जिसमें सैकड़ों निराश्रित लोग रह रहे हैं। इन्ही सबके बीच उपन्यास लोगों को बहुत पसंद आ रहा है. इस उपन्यास के लेखक आगे भी लिखते रहे.
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श्री रमेश चंद्र मास्टर साहेब हमारे गुरु जी हैं, हमने इनसे गणित की शिक्षा तो ली ही है, परंतु जीवन को कैसे जीना है यह बात उनके चेहरे पे हमेशा मौजूद मुस्कान से सीखा है।
भगवान उन्हे स्वस्थ रखें और लंबी उम्र प्रदान करें।