पौराणिक मान्यताओं के आधार पर असुर राज विरोचन का साम्राज्य जो वैरोचन साम्राज्य से प्रसिद्ध था, जिसकी राजधानी बलिपुरी थी। विरोचन पुत्र बलि धर्मात्मा स्वभाव का हुआ जिसकी ख्याति तीनों लोको में फैलती जा रही थी। यह जिज्ञासु राजा था इसे पता था कि यज्ञ के द्वारा कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए यज्ञ के प्रति श्रद्धावान था। इसके यज्ञ प्रभाव को देखकर देवताओं ने भगवान विष्णु की आराधना की और उन्हें प्रसन्न कर कहा कि लग रहा है शौर्य सम्पन्न युद्ध में निपुण महात्मा बलि यज्ञ के माध्यम से इन्द्र का स्थान पाना चाहते हैं यदि इन्हें नहीं रोका गया तो बिना युद्ध के ही वे इन्द्र बन जाएँगे। विष्णु ने बावन रूप धारण कर बलि को छला और तीन डेग में त्रिलोक और आधे पग में उनका शरीर ही नाप दिया। यह यज्ञ दान था जो आचार्य शुक्राचार्य के द्वारा सावधान करने के पश्चात् भी हो गया। यह भूमि उनकी राजधानी बलिपुरी के नाम से जानी गई।
दूसरा पौराणिक आख्यान यह है कि त्रिदेव में श्रेष्ठ कौन है ? इसकी जानकारी के लिए महर्षि भृगु को यह कार्य सौपा गया। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्मा के पास गये और उन्हें अपने कार्य में रत देखकर लौटे गये। फिर शिव के पास गये, तो उन्होंने देखा कि वे ध्यानस्थ अखण्ड समाधि में लीन थे। इसलिए वे वहाँ से भी लौट गये और क्षीर सागर को प्रस्थान किये जहाँ जाकर उन्होंने देखा कि शेष शैया पर लेटे हुए विष्णु लक्ष्मी से पाँव दबवा रहे हैं। ऐसा देख महामुनि को क्रोध आ गया और विष्णु के समीप जाकर उनके छाती पर एक लात जमा दिया, पदाघात के कारण विष्णु तुरन्त उठ गये और महर्षि का पाँव पकड़, उसे सहलाते हुए विनम्र वाणी बोले- हे महर्षि ! कहीं आपके चरण में चोट तो नहीं लगा क्योंकि लोग कहते हैं, विष्णु का हृदय पत्थर के समान है और आप का पद कोमल। महर्षि को पता चल गया कि श्रेष्ठ कौन है ? विष्णु को प्रसन्न करने हेतु विष्णु सहस्त्र नाम पढ़ने लगे और अपनी गलती के लिए क्षमा याचना करने लगे, तथा उसके पश्चात् अपने इस अनुचित कर्म के प्रायश्चित के लिए उपाय भी पूछे। विष्णु प्रसन्न हो इन्हें एक बाँस की सुखी हुई ‘कईन’ दिये और कहे कि इस ‘कईन’ से जिस स्थान पर कोंपल निकल आये, आप समझ लिजिएगा कि आपकी प्रायश्चित समाप्त हो गयी।
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महर्षि भृगु त्रिलोक में घुमते-घुमते पृथ्वी लोक यानी मृतलोक में आये और यहाँ सभी देशों का पर्यटन करते हुए आर्यावर्त के अन्तर्गत भारत वर्ष में सभी तीर्थों, नदियों का दर्शन करते हुए जब गंगा घाघरा के संगम पर आये तो सुखी हुई ‘कईन’ में कोंपल फूटने लगे, जिसके कारण वे यहीं अपनी कूटी बना, बालू से विस्तरित भू-भाग पर यज्ञ (याग) शुरू किये जिसे ‘बालूयाग कहा गया और आगे चलकर बलियाग हुआ फिर बलिया। यहाँ महर्षि के अनेक शिष्य हुए जिनमें एक दर्दर मुनि भी परमप्रिय शिष्य हुए जो इनसे शिक्षा और ज्ञान प्राप्त कर प्रसिद्धि प्राप्त किया। जब महर्षि भृगु ने एक पुस्तक ‘भृगुसंघिता’ की रचना की तो उसकी मीमांसा हेतु चैरासी कोटि यानी चैरासी प्रकार के मुनियों को आमंत्रित किया और दर्दर मुनि के देख-रेख में एक लोक कल्याण के लिए यज्ञ भी कराया गया। जिसकी पूर्णाहुति कार्तिक मास की पूर्णिमा को सम्पन्न हुई और मोक्षदायिनी गंगा और सरजू का संगम उनका प्रत्यक्ष साक्ष्य बना। जिसकी चर्चा सूदूर क्षेत्रों तक फैल गई और लोग दूर-दूर से इस पवित्र यज्ञ स्थल को नमन करने, देखने एवं पूजन हेतु आने लगे जो एक दूसरे से मेल-जोल का भी माध्यम बना और ददरी मेला के रूप में जाना गया।
वर्तमान समय में यह ददरी मेला अपने सांस्कृतिक पहचान के साथ पूरे विश्व में अपना स्थान बनाये हुए है। कभी यह मेला भारत का दूसरा बड़ा मेला माना जाता था। सबसे बड़ा मेला सोनपुर का हरिहर क्षेत्र का मेला था। कहते हैं कि पौराणिक गज-ग्राह का संघर्ष यही हुआ था। गज विष्णु का और ग्राह शिव का प्रतीक माना गया। उन दिनों वैष्णव और शैवों में अपने-अपने देवताओं की श्रेष्ठता को लेकर संघर्ष हुआ करते थे। हरि-विष्णु और हर-शिव कहे जाते हैं। वैष्णव और शैवों के बीच इसी क्षेत्र में संधि हो गई अर्थात् गज-ग्राह की लड़ाई समाप्त हो गई। इस संधि को यादगार बनाये रखने के लिए वहाँ मंदिर का निर्माण हुआ जिसमें विष्णु एवं शिव की एक साथ ही पूजा होती है और इसके उपलक्ष्य में मेला लगता है बिहार सरकार इस मेले को पूरा संरक्षण देकर लगाती है। आज भी लाखों श्रद्धालु इस पावन अवसर पर कार्तिक पूर्णिमा की अर्धरात्रि के पश्चात् पवित्र पावनी गंगा में स्नान कर कायिक, मांसिक और आध्यात्मिक रूप से पवित्र हुआ मानते हैं और महर्षि भृगु एवं दर्दर मुनि के भृगुआश्रम स्थिति मंदिर में जाकर पूजा, प्रार्थना एवं दर्शन करते हैं। दर्दर मुनि के नाम से प्रसिद्ध मेला आज भी अपनी पूर्व अवस्था का स्मरण कराते हुए विस्तृत रूप में लगता है, जिसमें विभिन्न प्रकार की दुकानों काष्ट कला, गाँधी आश्रम उद्योग निर्मित वस्तुओं की दुकाने, चर्म उद्योग की दुकाने, कम्बल, चादर की दुकाने, मेरठ का हेण्डलूम, चीनी मिट्टी के वर्तन, स्वेटर, जैकेट की दुकाने, सौन्दर्य प्रशाधन की दुकाने पौध एवं पुष्पों की नर्सरियाँ, कला प्रदर्शनी, कृषि उपकरण प्रदर्शनी, लघु-कुटीर उद्योग की प्रदर्शनियाँ देखने योग्य है। गीता प्रेस की दुकान तथा विभिन्न पुस्तकों की दुकानें पाठकों को आमंत्रित करती हैं। चरखी, सर्कस, नौटंकी, मौत का कुँआ आदि आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं तथा उसके साथ ही सांस्कृतिक-मंच भारतेन्दु-मंच से मुशायरा, कविसम्मेलन, नृत्यकला, नाट्य कला, लोकगायन एवं शास्त्रीय गायन जैसे उत्कृष्ट कार्यकर्म प्रस्तुत होते हैं।
मेले की भव्यता पशु मेले के कारण बढ़ जाती है जिसमें गाय-बैल, भैस, घोड़ा-घोड़ी, गधा-गधी आदि भी किने-बेंचे जाते हैं। मेले में मथुरा का खजला, आवरा नीबू, के साथ जलेबी, चाँट की दुकाने, लोगों को बहुत आकर्षित करती हैं। बच्चों के मनोरंजन की सामग्रियाँ भी बिकती हैं, जिसे वे देखकर, खरीद कर अत्यंत प्रसन्नचित होते हैं। यह मेला आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से बहुत मूल्यवान है। इस मेले पर भी प्रदेश सरकार को विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि पर्यटन के रूप में यह भी विकसित हो सके। इसका प्रचार-प्रसार राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कराना आवश्यक है ताकि इसके सांस्कृतिक मूल्यों को लोग जान सकें और पर्यटन के माध्यम से इसका विकास हो सके। कई सरकारे आईं और चली गईं। सबने ददरी मेला को उत्तर प्रदेश सरकार का मेला बनाने का आवश्वासन दिया, उस पर वोट बटोरा, सत्ता पाई और चले गये। किसी को इस मेले के महत्व की चिन्ता नहीं रही और अतिक्रमण से बचाने की भी किसी को फिक्र नहीं रही। मेला भी गंगा और अतिक्रमण की दो धाराओं के बीच बनता, बिगड़ता और खिसकता रहा।
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शिव जी पाण्डेय “रसराज”
22 नवंबर 2021
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साधुवाद इतनी संपूर्ण जानकारी के लिए हम जैसे बहुत लोगो को इसके बारे पूरा नही पता था, कभी कभी बुजुर्गो से ये कहते सुना है की महर्षि भृगु जिसको लात मार देते यानी जिसको अपना जिला बलिया छोड़ कर बाहर जाना पड़ता है, कभी कभी बहुत सफल बन जाता है, इस लेख से कई जानकारी मिली।