UP Bihar आगे ही नही पीछे भी

आगे ही नहीं पीछे भी… अंधेरे में सूर्य…

सूर्य के प्रति सम्मान प्रगट करने के लिए ऋग्वेद में कई ऋचाएं है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र भी इसका प्रमाण है। सूर्य अपने मंडल (नक्षत्र परिवार) का केंद्र है। पृथ्वी भी इस परिवार का एक अंग है। प्रकाश, ऊर्जा और ऊष्मा के अतिरिक्त यह जीवन का आधार है। सूर्य विज्ञान का आधार है, जिसका उल्लेख वेदों में है। इसकी उपस्थिति दिन और अनुपस्थिति रात्रि कही जाती है। वास्तव में यह न उगता है न डूबता है। ग्रहों की गति के चलते दिन-रात्रि होते हैं। सूर्य संपूर्ण वनस्पति जगत का प्राण तत्व है। प्राकृति का वनस्पति जगत जीवधारियों के लिए अत्यंत उपयोगी है। आधुनिक विज्ञान और प्राचीन भारतीय विज्ञान में अंतर नहीं है। पांचांग की गणना और आधुनिक विज्ञान की गणना में कोई अंतर नहीं है। आधुनिक प्रयोगशाला न होते हुए भी प्राचीन वैज्ञानिक स्थापनाएं (तथ्य) वैसे ही हैं। यह समझना भारी भूल है कि प्रयोगशाला के कारण आज की वैज्ञानिक प्रगति हो रही है। सत्य यह है कि प्राचीन वैज्ञानिक सिद्धांतों को आधुनिक प्रयोगशाला के माध्यम से भी परीक्षण करने पर प्रमाणित सिद्ध हो रहे हैं। आधुनिक विज्ञान की उच्चतम उपलब्धियों में से एक कंप्यूटर है जो वैदिक यज्ञशाला के श्रीचक्रम से निकला। श्रीचक्रम अन्य सिद्धांतों का भी आधार है। जिस पर खोज चल रही है। सूर्य चक्र भी वैज्ञानिक है और सूर्य विज्ञान का आधार है। सूर्य को सम्मानित करने और उसके प्रति आभार व्यक्त करने का महापर्व सूर्यषष्ठी (छठ पर्व) मनाने की प्रथा बिहार से आरंभ हुई। बिहार आर्यभट्ट की जन्मस्थली है। जिन्होंने सूर्य और पृथ्वी के अंतर संबंधों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया। सूर्य और सूर्य के प्रभाव तथा सूर्य के चलते मानव सहित अन्य जीवों, वनस्पतियों और नदियों को जो कुछ भी प्राप्त हो रहा है, उसके प्रति आभार प्रकट करने का यह पर्व है।

प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल षष्ठी को अस्तांचलगामी (डूबते हुए) सूर्य को अर्ध्य देने की परंपरा है और दूसरे दिन प्रातः काल अरुणोदय सूर्य को भी अर्ध्य समर्पित किया जाता है। अर्ध्य के समय सूर्य की शक्ति से प्राप्त फलों, वनस्पतियों के साथ अपने में भी 36 घंटे का उपवास रखकर सूर्य की ऊर्जा का अनुभव करते हुए अर्घ्य दिया जाता है। ये सामग्रियां अपने प्रत्यक्ष देव सूर्य के समक्ष रखी जाती है जो यह बताती है कि उनके कारण ही ये प्राप्त हुई। अर्घ्य देते समय अपनी आंखों के सामने सूर्य के समक्ष जल समर्पित किया जाता है। यह इसलिए अर्घ्य कहलाता है क्योंकि हम वास्तव में सूर्य के प्रति कृतज्ञता उनकी बराबरी में नहीं दे सकते। सूर्य से जो और जितना मिला है उनके प्रति हम सांकेतिक मूल्य अर्घ्य के रूप में समर्पित करते हैं। मूल्यवान का मूल्य चुकाने का यह अनोखा तरीका वैदिक यज्ञ से लिया गया है। यज्ञकर्ता जब हव्य सामग्री अग्नि देव के माध्यम से अभीष्ट देव को समर्पित करता है तो वह कहता है। यह सूर्य का है यह मेरा नहीं है। सूर्यषष्ठी अर्ध्य विधान भी यज्ञ का ही एक रूप है जिसका मूल सिद्धांत इदम् सूर्याय इदम् न मम् है। व्रती अर्द्धविधान के माध्यम से इस शाश्वत शब्द को भी स्वीकार करते हैं कि डूबने के बाद भी अंधेरे काल में वनस्पति जगत का पोषण और जीव जगत को विश्राम मिलता है। इसी प्रकार दिवस काल में जो प्रकाश ऊर्जा और ऊष्मा प्राप्त होती है उसके बहुमुखी उपयोग हैं और जीव जगत को क्रियाशील रखने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हैं। पौराणिक स्थानों और लोक प्रचलित कथाओं में सूर्य शक्ति का उल्लेख मिलता है जिसके निर्वाह के लिए स्वच्छता बुनियादी शर्त हैं। शारीरिक, मानसिक स्वच्छता के साथ समर्पण भाव से लोकगीतों के साथ इस पर्व को मनाने की परंपरा है। इस पर्व का अनुशासन जलाशय के समीप होता है और अनुशासन घर में लोकगीतों में भोजपुरी लोकगीतों को अधिक लोकप्रियता मिली, क्योंकि भोजपुरी पश्चिमी बिहार की मुख्य भाषा रही है। बिहार से जितनी कथाएं देश और विदेश के अन्य भागों में गई है वे अपनी पारंपरिक संस्कृति को भी लेती गई है। आज देश का शायद ही कोई प्रदेश या जनपद हो जहां सूर्यषष्ठी का यह पर्व नहीं मनाया जा रहा हो।

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ऐसा नहीं समझना चाहिए कि केवल महिलाएं ही इस पर्व को मनाती हैं पुरुष भी इस पर्व को उतनी ही श्रद्धा और समर्पण के साथ मनाते हैं। जिनकी संख्या महिलाओं से बहुत कम होती है। इस पर्व का मुख्य प्रसाद ठेकुआ होता है। छठ पर्व के चार चरण होते हैं चतुर्थी को यह पर्व नहाए खाए से शुरू होता है जिस दिन व्रती स्नान करके पवित्रता पूर्वक खीर आदि पदार्थ खाते हैं। दूसरे दिन दूसरे यानी पंचमी के दिन खरना होता है। जिस दिन व्रती अल्पाहार लेती हैं और उसी समय से 36 घंटे का यह व्रत शुरू हो जाता है। जिसका समापन अष्टमी के प्रातः काल ऊगते हुए सूर्य का दर्शन करते उन्हें अर्घ्य देने के साथ हो जाता है। व्रती सूर्यदेव से यह प्रार्थना करते हैं कि वह प्रतिवर्ष यह  व्रत पूजा करने की शक्ति प्रदान करें, हमारा परिवार समाज और देश सुख समृद्धि से भरा रहे, हमें उत्तम संतान मिले और हमारा जीवन सुख शांति के साथ व्यतीत हो। हमें सूर्य देव अपनी श्रेष्ठतम शक्तियों को प्राप्त करने के लिए हमारी बुद्धि को सदैव प्रेरित करते हैं, यो न: प्रचोदयात्।

आधुनिक युग में कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि आज वैज्ञानिक उन्नति अधिक हो गई है। उन्हें यह समझना चाहिए कि मंत्र (रैस्नेल) तंत्र (टेक्निक) और यंत्र (टूल्स) तीनों में मंत्र भारत में वैदिक काल से ही है। तंत्र और यंत्र भी रहे, किंतु आज के विज्ञान ने निश्चित रूप से तंत्र और यंत्रों का विकास अधिक और प्रगति से हो रही है। बहुमुखी और बहुउद्देशीय परक हुआ है वैज्ञानिक दृष्टि से यह जानने की आवश्यकता है कि वह क्या था कि हनुमान ने सूर्य की समीप्यता प्राप्त कर ली। यदि इसका यह अर्थ है कि हनुमान ने सूर्य विज्ञान का ज्ञान सूर्य वैज्ञानिक अपने गुरु से प्राप्त किया था और उसका उपयोग उन्होंने विभिन्न तकनीको से किया तो यह अनुसंधान का विषय है कि वह ज्ञान क्या पुन: विकसित हो सकता है ? भारतीय वैज्ञानिकों ने 12 सूर्यो  एवं उनके शौरमंडल का उल्लेख हजारों वर्ष पहले किया है। जिसका उल्लेख आधुनिक वैज्ञानिक भी अब करने लगे हैं सूर्य संबंधित संपूर्ण विज्ञान की प्रतीक्षा की जानी चाहिए। आइए हम सब मिलकर अपने प्रत्यक्ष देव सूर्य के असीम उपकारों के प्रति कृतज्ञता भाव से उन्हें नमन करें।

कृपया अपने विचार नीचे कमेंट सेक्शन में साझा करें।

Shivji Pandey

शिवजी पाण्डेय “रसराज”

09 November 2021


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3 Replies to “आगे ही नहीं पीछे भी… अंधेरे में सूर्य…

  1. पाण्डेय जी, ये कैसा टाइटल दिया है आपने अपने इस लेख को। “आगे ही नहीं पीछे भी, अंधेरे में सूर्य” क्या मतलब है इसका….😳

    1. जो अंधेरा है वह जीवन का अंधेरा है। इस जीवन के अंधेरे में सूर्य का उदय होना, उसका अस्त होना हर चीज वंदनीय है। सूर्य जब अस्त हो रहा है तो वास्तव में अस्त नहीं होता है वो कहीं न कहीं उगा रहता है और सौरमंडल के ग्रहों के चलायमान होने के वजह से फिर उसी जगह पर सुबह उग जाता है। सूर्य का उगा होना वनस्पति जगत को पोषण देता है लेकिन जब ओझल होता है तो जीव जगत को विश्राम देता हैं। एक बार फिर से इस लेख “आगे ही नही पीछे भी… अंधेरे में सूर्य” को इस परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए पढ़ना चाहिए।

  2. बेहतरीन लेख ! कुछ किन्तु परन्तु के वावजूद मैं पूर्णरूपेण इसे अंगीकार करता हूँ । यह प्रमाणित तथ्य है कि सूर्य की रोशनी जहाँ नहीं पहुंचती वहाँ जीवन भी नहीं होता । प्रायः यह देखा जाता है कि किसी खेत के जिस हिस्से में किसी पेड़ पा किसी आकृति के कारण धूप की रोशनी नहीं पहुंचती वहाँ कोई फसल भी पैदा नहीं होती । अर्थात अन्न पैदा नहीं होता । उपनिषदों ने अन्न को ही ब्रम्ह माना है । दूसरी तरफ यदि सूर्य की उष्मा के कारण ताप पैदा नहीं होगा तो बादल भी नहीं होंगे । और जब बादल नहीं होगे तो बारिश भी नहीं होगी ।इस प्रकार सभी तरह से सूर्य के विना जीवन सम्भव नहीं है J विज्ञान कुछ और नहीं वल्कि प्रमाणिक ज्ञान ही तो है । इतिहास और मिथिहास का सबसे बडा फर्क यह है कि इतिहास का प्रमाण है और मिथिहास का कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि यह मानवीय कल्पनाओं पर आधारित है । इतिहास वह है जो विभिन्न कालखण्डों में प्रमाणिक रूप से घटित हो चुका है । यह दूसरी बात है कि कल्पनाओं पर आधारित मिथिहास और उसको फालोअर ही इस समय ज्यादा ताकतवर होगए हैं । ऐसा हमारी अवैज्ञानिक शिक्षा और अविवेक पूर्ण प्रथाओं के चलते हो रहा है । अब सवाल पैदा होता है कि जिस वस्तु या पिण्ड के कारण हमें जीवन मिलता है उसका हमें शुक्रगुजार तो होना ही चाहिए । कम से कम साल में एक बार उसका नमन तो करना चाहिए । क्यों नहीं ? अवश्य करना चाहिए । परन्तु परेशानी तब पैदा होने लगती है जब दिखावटी पन और आडम्बर इस पर हावी होने लगता है और वही हमें नुकसान पहुंचाता है, परन्तु हम आति उत्साह में इधर ध्यान नहीं दे पाते । अर्थात सूर्य उपासना हो परन्तु बेहद सादगी के साथ । ऐसा नहीं है कि हम वर्ष में एक बार सूर्य उपासना न करें तो सूर्य की गति में या उसके जीवन दायनी प्रवृत्ति में कोई अन्तर आजाएगा । हम महान सूर्य के माध्यम से प्रकृति की पूजा तो करें लेकिन अपने निहित स्वार्थों के लिए उसे विनष्ट करने वाले कारकों से बचें । सूर्य का चलायमान रहने की निरन्तरता ही जीवन का सार है । जिस प्रकार सूर्य पृथ्वी के एक हिस्से को आलोकित करने के बाद दूसरे वंचित हिस्से को आलोकित करने निकल पड़ता है उसी प्रकार इस विश्व के विभिन्न देशों की हुकुमते भी चलने लगे लो जीवन सचमुच नें बहुत सुन्दर हो जाएगा। बस फिलहाल इतना ही । आपको इस सुन्दर आलेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !

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