बलिया। भारत के संविधान लागू किया जाने के क्रम में यह आवश्यक था कि देश के प्रत्येक नागरिक को उसका मताधिकार कानूनन सुरक्षित किया जाए। लोकतंत्र में सरकार बनाये जाने के लिए विधायी संस्था का गठन होता है। जिसका नेता प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री अपने मंत्रिपरिषद का गठन करता है। मंत्रिपरिषद का प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए और संपूर्ण मंत्रिपरिषद के लिए उत्तरदायी होता है। इस व्यक्तिगत और सामूहिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए संवैधानिक दायित्वों को पूरा करना होता है। प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद अपनी सरकार का स्वरूप निर्धारित करते हैं। प्रधानमंत्री संसद के प्रति उत्तरदायी होता है और सांसद देश के जनमत का प्रतिबिम्ब बन कर कार्य करता है। स्पष्ट है कि सरकार देश के नागरिकों का प्रतिनिधित्व करती है। जिससे अपेक्षा की जाती है कि वह संविधान के अंतर्गत कार्य करेंगी। उसे राष्ट्रपति संविधान के प्रति निष्ठा और विश्वास की शपथ दिलाते हैं। यदि विवेचन किया जाए तो यह स्पष्ट है कि भारतीय लोकतंत्र में नागरिक ही सर्वोच्च सत्ताधारी है। विधायिका का दायित्व संविधान के संगत कानून बनाना है जिसे निर्धारित प्रक्रिया के अंतर्गत सरकार प्रशासनिक अधिकारियों एवमं कर्मचारियों के माध्यम से क्रियान्वित कराती है जिस तंत्र को कार्यपालिका कहा जाता है। भारतीय संविधान में न्यायपालिका संविधान का संरक्षक है, नागरिकों के मूल अधिकारों का अभिभावक है और वह विधायिका के द्वारा बनाए गए कानूनों को संविधान सम्मत घोषित करने, उसे संविधान के अनुकूल पाने और संविधान से बाहर था रहने का अधिकार तो है ही, यह उसे परामर्श देने का भी अधिकार है ये ही नहीं कानून के सम्यक क्रियान्वन कराने का भी अधिकार रखता है। यहाँ हमें संविधान विषयक व्यवस्थाओं की चर्चा करने की आवश्यकता आज नहीं है किंतु नागरिकों को उनके सर्वोच्च अधिकारी चर्चा करने का अवसर अवश्य है।
विगत 70 वर्षों में नागरिकों के तेवर देश ने देखा है। स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाली कांग्रेस पार्टी संसद और विधान सभाओं में 1992 तथा 1957 छाई रही, फिर भी 1952 में वह केरल में सरकार नहीं बना पायी। वहां सोशलिस्ट पार्टी की सरकार बन गयी। सोशलिस्ट पार्टी भी आजादी की लड़ाई में कांग्रेस के साथ ही सक्रिय रही। 1950 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्यों ने अपनी अलग पार्टी बना लिया था जिसका नेतृत्व आचार्य नरेंद्र देव कर रहे थे जिनका साथ जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे लोगों ने दिया। दूसरी ओर हिंदू राष्ट्रवाद को लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थन में से कांग्रेस से अलग होकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की नीव डाली। साम्यवादियों ने भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन देश के किसानों और मजदूरों को लेकर खड़ा किया। मताधिकार पर विचार करते समय यह स्मरण रखना आवश्यक है कि मुस्लिम राष्ट्रवाद में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान बनवा लेने में सफलता प्राप्त कर ली थी किंतु भारत का संविधान देश के सभी नागरिकों को विश्वास एवं पूजा पद्धति अपनाने की छूट के साथ उस उनका मौलिक अधिकार सुनिश्चित करता है और राज्य को सभी नागरिकों की समानता और बंधुता सुनिश्चित करते हुए किसी भी धर्म से लिप्त होने की छूट नहीं देता, उसे धर्मनिरपेक्ष बने रहने का संविधान निर्देश देता है। 1962 से पूर्व मताधिकार पर स्वतंत्रता आंदोलन के स्पष्ट छाप दिखाई देते हैं किंतु राम मनोहर लोहिया का गैर कांग्रेसवाद, गैर साम्यवाद किंतु भारतीय संस्कृतिक परिप्रेक्ष में मताधिकार के आधार पर निर्मित समाजवाद ने एक ओर कम्युनिस्ट पार्टियों को दो खंड में, कांग्रेस को दो खंड में और पिछड़े वर्ग को संगठित होने की राजनीति ने देशवासियों के समक्ष अनेक विकल्पों के द्वार खोल दिए जिसकी हानि कांग्रेस को उठानी पड़ी। समाजवादियों का आन्दोलन पिछड़ों की राजनीति की बैशाखी पर आगे बढ़ा किंतु उसका जनसंघ की संप्रदायिकता वाली राजनीति का कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं मिला। कांग्रेस ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से हाथ मिलाया जिसका प्रभाव बहुराष्ट्रीय कंपनियों की देश से बिदाई, आर्थिक आत्मनिर्भरता का संकल्प, निजिकरण के विरुद्ध अभियान और सार्वजनिक क्षेत्र को अत्यधिक बढ़ावा देकर राष्ट्रीयकरण की नीति ने मताधिकार के सामने अधिक लुभावने और ठोस कार्यक्रम रख दिये। इनका विकल्प रखने में शेष राजनैतिक दल जब समर्थ नही हुए तो उन्होंने अनेक प्रकार के सामाजिक और राजनैतिक षड्यंत्र भी किये जिससे मताधिकार प्रभावित होता रहा।
मतदाता देश में जैसे-जैसे प्रशिक्षित होते जा रहे हैं और परिपक्वता बढ़ती जा रही है वैसे वैसे सत्ता लोलुपो के छल-छ्न्द भी नए-नए रूप लेते जा रहे हैं। नागरिकों का तब दायित्व बढ़ जाता है जब उन्हें सत्ता लोलुप भेद, दुराव और भिन्नता के विष उनके मन में बने लगते हैं। संविधान की मूल आत्मा को छोड़कर उसके निर्देशों का उल्लंघन करके जब यह सत्ता लोलुप अपने एजेंडे पर जनमत आकर्षित करने की चेष्टा करने लगते हैं तब नागरिकों का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है। जब यह सत्ता लोलुप प्रतिशोध और संकीर्णता उत्पन्न करके जनमन को विभाजित करने की चेष्टा करने लगते हैं और देश के अधिनायक गण को प्रभावित करने लगते हैं तो नागरिकों का दायित्व सजग होने का मार्ग खोजने लगता है। प्रश्न केवल इतना नही कि मत किसके पक्ष में दिया जाय, सरकार कैसी बने और किसकी बने। प्रश्न यह है कि मत उसके पक्ष में क्यों ना दिया जाय, जो सत्ता लोलुप ना होकर सत्यनिष्ठा हो, जो अपने दलिय छिपे एजेण्डे पर काम न कर के लोकतांत्रिक गणराज्य को संवैधानिक रूप में विकसित कर के उन्नति के शिखर पर उस बिंदु को छूने के लिए नीतिबद्ध हो जिसमें सम्पन्नता में समता हो और समता में मानवता हो। व्यवहारिक दृष्टि से यह आवश्यक लगता है कि चुनाव आयोग इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभाये, प्रत्येक दल के घोषणा पत्र की समीक्षा करें और असंवैधानिक पाये जाने पर उस दल को उसके घोषणा पत्र के साथ निरस्त कर दें। चुनाव आयोग को यदि देश के नागरिकों के मताधिकार की शक्ति को लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रण स्वीकार करना हो तो प्रत्येक मान्यता प्राप्त अथवा पंजीकृत राजनैतिक दल, चाहे वह राष्ट्रीय स्तर का हो या क्षेत्रीय, उसके घोषणा पत्र को कानूनी दस्तावेज के रूप में पंजीकृत करना चाहिए और उसके उल्लंघन पर उसके आगामी चुनाव से पूर्व रजिस्ट्रेशन को निरस्त करके उसके प्रत्याशी को चुनाव के अयोग्य घोषित करने का अधिकार प्राप्त करना चाहिए। इसके लिए उसे सरकार अथवा न्यायालय से संपर्क करके विधान अथवा मताधिकार कानून में प्राविधान द्वारा सुनिश्चित करना चाहिए। इससे राजनीति में अवांछनीय तत्वों का प्रवेश रुकेगा, राजनीतिक पार्टियां अपराधियों का शरणस्थल नहीं बन पायेगी, विधायिका और सरकार अधिक उत्तरदायी बन सकेंगे, देश के नागरिकों का सम्मान बढ़ेगा और सर्व समर्थ मताधिकार प्रवंचनाओ से बचा रहेगा। नागरिकों का मताधिकार केवल मताधिकार तक सीमित नहीं रह पायेगा अपितु वह सर्व कल्याणकारी, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष शासन को प्रतिष्ठित करने में सफल होगा और सत्ता लोलुप सत्ता में आने की चाह कम करेंगे और देशभक्ति, नागरिक शक्ति तथा सर्वांगीण शोषण से मुक्ति मिलने की राह प्रशस्त होगी।
शिवजी पाण्डेय ‘रसराज’
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