National आगे ही नही पीछे भी

आगे ही नहीं पीछे भी… क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी?

इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि भारत कभी भी एक दृष्टिकोण, एकधर्म, एक भाषा, एक भावभूमि अथवा एक व्यवस्था वाला देश नहीं रहा है। भारत में द्रविण संस्कृति सबसे पुरानी मानी जाती है और आर्य लोगों पर विवाद बना रहा है। कुछ इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि आर्य मध्य एशिया से यहाँ आये। बालगंगाधर तिलक कहते हैं कि आर्य उत्तरी ध्रुव से यहाँ आये। कुछ इतिहासकारों का मत है कि द्रविण और आर्य इसी भू-भाग के हैं। द्रविण नगरीय सभ्यता के और आर्य ग्रामीण सभ्यता के पोषक रहे। आर्यों ने अपनी समाजार्थिक व्यवस्था गाँव पर केन्द्रित की और गाय तथा गंगा को उसका उपकरण माना। द्रविणों की संस्कृति नगरीय विकास और सर्वसमावेशी रहा। जिनके देवता शिव रहे। आर्यों ने वैदिक और द्रविणों ने भौतिक विकास किया। अपने सुख संबृद्धि के लिए देवताओं का आश्रय यज्ञ के सहारे लिया जाता रहा किन्तु सुख संबृद्धि के लिए प्रकृति के द्वारा प्रद्त साधनों का अनुसंधान और उपयोग करके भौतिक सुख संबृद्धि प्राप्त करने वालों को असुर (देवों पर अनाश्रित) कहा गया। ये अपनी रक्षा भी और व्यवस्था भी स्वयं करते थे, परमुखापेक्षी नहीं होते थे, इसलिए इन्हें रक्ष संस्कृति का पोषक राक्षस कहा जाता था।

वेदाधारित चिंतन में यज्ञ को छोड़कर उपनिषदों में आत्म चिंतन आया। वैदिक व्यवस्था की कथात्मक प्रस्तुति के नाम पर पौराणिक व्यवस्था आ गयी। वेदों में ज्ञान-विज्ञान भरा था और पुराणों में भक्ति। वेदों के आधार पर आर्यों ने समाजार्थिक व्यवस्था का निर्माण किया, जिसको स्वीकार करने वाले आर्य धर्मवलम्बी बने। पुराणों की व्यवस्था ने एक नये धर्म को जन्म दिया जिसकों स्वीकार करने वाले सनातन धर्मी कहलाये। मूल वैदिक धर्म ने सनातन धर्म को स्वीकार नहीं किया किन्तु सनातन धर्म ने वैदिक धर्म को अस्वीकार भी नहीं किया। सनातन धर्म के लिए पौराणिक आख्यानों में सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक सोंच और राजसत्ता प्राप्त करने के लिए सम्भावित अनेक प्रकार के संघर्षों का उल्लेख है। प्रसंगवस उनकी चर्चा करके अपनी इच्छा एवं परिणति की कसौटियाँ बनती बिगड़ती दिखती हैं। वेदों में कोई इतिहास नहीं है किन्तु ज्ञान-विज्ञान का मूल है पुराणों में जिस इतिहास का उल्लेख मिलता है उसका प्रमाण भी पौराणिक ही है, ऐतिहासिक नहीं। कथाओं को आधार देने के स्थान वास्तविक माने जाते हैं कथायें नहीं।

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भारत के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में दूसरे देशों से अनेक उद्देश्यों जैसे राज करने, व्यापार करने, धर्म का प्रकार करने से प्रेरित होकर आते रहे। हाल के वर्षों में हूण और शक आर्ये, इसाई और यहूदी, मुसलमान और सूफी आये अपने-अपने उद्देश्यों में वे सफल भी रहे, विफल भी हुए, व्यापार भी किया, राज भी किया और यहाँ से चले भी गये। इसाई धर्म दोहजार वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया जिसका पहला गिरिजाघर केरल में कायम हुआ जिसे ईशुमसीह के शिष्य सेंटथामस ने स्थापित किया। वे जीवन पर्यन्त यहीं रह गये। इस्लाम धर्म यहाँ शिक्षा के माध्यम से आया और कुछ इस्लाम धर्मावलम्बी यहाँ सम्पत्ति लूटने के लिए, अपना आक्रामक साम्राज्य विस्तरीत करने के लिए यहाँ आये। लगभग साढ़े छः सौ साल तक मुगलों ने भारत में राज्य किया, इसी बीच डच और फ्रांसीसी यहाँ व्यापार के साथ-साथ अपना उपनिवेश भी बना लिया। इग्लैंड के साम्राज्यवादी व्यापारी बनकर यहाँ आये और यहाँ के महाराजा बन गये। भारत की संस्कृति की तुलना पवित्र गंगा से की जा सकती है। गंगा में सैकड़ों झरने, नदियाँ, और नाले मिलते हैं, जो सब मिलकर अपना अस्तित्व खो जाने की चिंता छोड़ कर उससे विलीन हो जाते हैं इसी प्रकार विदेशों से यहाँ आये लोगों ने अपनी सोच, सभ्यता और अपनी संस्कृति को महान भारतीय संस्कृति में जाने अनजाने रूप में विलीन होने दिया और यहाँ की संस्कृति ने उसे अपनाकर गौरव महसूस किया।

भारतीय संस्कृति को किसी धर्म निष्ठा वाली संस्कृति से जोड़ना उसकी सहज सहिष्णु भावनाओं पर कुठाराघात करना ही हैं। पिछले छः सौ वर्षो की भारतीय संस्कृति में एक नयी क्रांति का सूत्रपात हो गया, जिसे हिन्दूवादी सोच कहा जा सकता है। यह सोच प्रतिक्रियावादी, संकीर्ण सोच कही जाती है जिसे सांस्कृतिक आधार देने के लिए पौराणिक आस्था से जोड़ा गया और उसे सनातन धर्मी कहा गया। यह भारतीय संस्कृति का एक अध्याय हो सकता है, उसका स्वरूप नहीं। क्रिया और प्रतिक्रिया को बढ़ावा देने के बजाय उसे निष्क्रिय और निष्प्रभावी करने के लिए आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति की मूल संरचना को समझा जाय, उसकी आत्मसाती प्रवृत्ति का आदर किया जाय, सहिष्णुता को बलवती बनाया जा और सर्वेस्वीकार्यता को अपनाया जाय। ऐसे भूत जो दफन हो गये हैं या प्रवाहित हो गये है उन्हें जिन्दा करने वाले भारतीय संस्कृति के उदार स्वरूप के पोषक नहीं माने जा सकते, क्योंकि सहिष्णुता अभिव्यक्ति का संरक्षक है और सर्वस्वीकार्यता को प्रश्रय देता है, यह चिन्ताजनक है कि भारतीय संस्कृति को किसी धार्मिक निष्ठा के आधार पर व्याख्यापित किया जाय और उसे भी ऐसे समूह अपने निहित स्वार्थों में उपयोग करें या वह सत्ता लोलुपों के लिए कोई मुद्दा बन सके तो यह गंगा के सदृश्य पवित्र संस्कृति के विरूद्ध मनमाना व्यवहार करने वालों का कुत्सित आचरण ही माना जा सकता है।

देश में लगभग हजार वर्ष पूर्व एक ऐसा सांस्कृतिक आन्दोलन छिड़ा जिसमें देश के महान सांस्कृतिक मूल्यों को खंडित करने वाले तत्वों का विरोध था। कतिपय विचारकों ने जैन और बौद्ध व्यवस्था की समानतावादी सोच के विरूद्ध कहा तो कुछ नहीं, किन्तु उनके चलते इन विचारों के प्रसार पर गतिरोध उत्पन्न अवश्य हुआ। देश में विभिन्न विचारों आस्थाओं और विमर्शों के बीच नानकाना साहब में एक ऐसे तत्वदर्शी महात्मा का जन्म हुआ जिन्होंने सम्पूर्ण विमर्श की दिशा ही बदल दी, पुस्तकों में लिखा ज्ञान चिंतन और विमर्श का विषय हो सकता है किन्तु आत्मचिंतन से प्रकट ज्ञान और उसके अनुभूति विमर्श का विषय नहीं हो सकते। उन्होंने एक ओऽमकार तत्व को सबमें देखा और उसके निर्गुण और निराकर स्परूप को ध्यान साधना द्वारा प्रत्यक्ष करने की सलाह दी। वे संत नानक जी रहे जिन्होंने कबीर साहब के समता मूलक भेदभाव रहित समाज, जात-पाँत रहित जीवन और मोक्षदायक ज्ञान को अपनाया और अपने इस ज्ञान से जुड़ने के लिए देशाटन किया और जिज्ञासुओं को जोड़ा। हम उनकी पाँच सौ बावनी जयन्ती पर इसलिए भी नमन करते हैं कि जब एक ही तत्व सबमें है तो किसी संकीर्णता को लेकर दुराव और द्वेष क्यो?

किसी भी जीवन को चाहे वह व्यक्तिगत हो समाजिक या राष्ट्रीय उसे पराधीनता प्रिय नहीं होती। पराधीनता से छुटकारा पाने के लिए जब नारी समाज अपनी अग्रणीय भूमिका निभाने लगता है तो समझना चाहिए कि लक्षण शुभ हैं और स्वतंत्रता मिल करके ही रहेगी। 1857 की विरांगना उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में बनारस में जन्मी किन्तु झाँसी के रानी के रूप में अपनी तेजस्विता का पौरुष विखरने वाली रानी लक्ष्मीबाई अपने मिशन के चलते देश-दुनिया में अविस्मरणीय बनी हुई हैं। स्वतन्त्रता आन्दोलन का उद्देश्य अपने में समेटे लक्ष्मी नारी वर्ग की अस्मिता और उनके बहुमुखी शौर्य का प्रतीक बनी हुई हैं।

भारत में मुगल कालीन शासन काल के दौरान रजिया बेगम का नाम एक शासक के रूप में इतिहासकार लिया करते हैं। आजाद भारत की तकनिकी रूप में चैथी किन्तु व्यवहारिक रूप से तीसरी प्रधान मंत्री इन्दिरा प्रियदर्शनी का जन्म उत्तर प्रदेश के त्रिवेणी में हुआ। उनकी शताब्दि तो बीत गई किन्तु शताब्दि समारोह नहीं हुआ। उन्हें बचपन में बलिया के मनियर निवासी विश्वनाथ प्रसाद ‘मर्दाना’ ने अंग्रेजी की आरम्भिक शिक्षा दी। बचपन से ही उन्हें घोड़सवारी का शौक था। स्वतन्त्रता संग्राम से जुड़ी रही। उनके पिता जवाहर लाल नेहरू ने जेल में रहकर पुत्री के नाम पत्र ऐतिहासिक रचना जो इन्दिरा जी को भेजा उसने तत्कालीन विश्वराजनीति से अवगत कराया। दुनिया में चल रहे लोकतंत्र, नाजीवाद, फासीवाद, के उदय और राष्ट्रवाद की भारतीय सोच तथा यूरोपीय परिदृश्य से अवगत कराते हुए समाजवाद की आवश्यकता को समझाते हुए जो वैचारिक धरातल पैदा हुआ उसके इन्दिरा जी के लम्बे शासन काल में उनकी नीतियों और कार्यक्रमों में परिलक्षित होता रहा। इन्द्रिरा जी के कार्यकाल में यह महसूस किया गया कि लोकतंत्र में सामन्तशाही, समाजवादी मूल्यों के विपरीत है इसलिए राजाओं के प्रीवीपर्श समाप्त कर दिये गये।

आम जनता की जमापूँजी पर चल रहे बैंकों की पूँजी से पूँजीपतियों को लाभ मिल रहा है और जमाकर्ता इससे वंचित्र हैं इसलिए उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जिसका लाभ देश के जन-जन को मिलने लगा। खेती, छोटे उद्योग, घरेलू उद्योग, मजदूर आदि इससे लाभ प्राप्त करने लगे। गरीबी और बेकारी पर चोट करने का यह कारगार कदम साबित हुआ। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान को बंगलादेश बनने में इन्दिरा जी की भूमिका ने विश्व पटल पर अमेरिका की पोल खोलने वाली और निर्गुट देशों का स्वाभिमान बढ़ाने वाली साबित हुई। समय की कसौटी पर सोवियत संघ की मैत्री की झलक एक बार फिर देखन को मिली। देश को इन्दिरा ने आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिया और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत से उनके अपने देश विदा कर दिया। भारत में प्रेस की स्वतन्त्रता की रक्षा करने और सरकार को जनता के विश्वास और पूजा पद्धति में हस्तक्षेप न करने के प्रति उनका दृष्टिकोण स्पष्ट रहा। कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण और पारमाणविक विकास तथा शिक्षा के क्षेत्र में चैतरफा एवं संस्कृति को महत्व देना और हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने एवं भारत को सुरक्षा परिषद् का स्थाई सदस्य बनाये जाने की पहल की।

इन्दिरा गाँधी तकनिकी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का आधारभूत ढ़ाचा खड़ा किया। उनके बहुत से ऐसे कार्यक्रम और नीतियाँ रहीं, जिनका साम्यवादी विचार धारावालों ने स्वागत किया किन्तु अमेरिका परस्त राजनीतिकों ने विरोध। अनेक संवैधानिक समस्याओं में घिरी और अपनी नीतियों और कार्यक्रमों के विरोधियों के चलते उन्हें 25 जून 1975 को आपात काल की घोषणा करनी पड़ी जो 18 माह तक बनी रही और 1977 के चुनाव में इन्दिरा और उनका दल बुरी तरह से पराजित हो गये। पुनः वे 1980 के मध्यावधि चुनाव में भारी बहुमत से जीत हासिल कर ली। आपातकाल के दौरान भारत के संविधान में तीन महत्वपूर्ण संशोधन किये गये जिनमें से एक ने संविधान में ग्यारह नागरिक मूल कत्र्तव्य जोड़े। सम्पत्ति पर निजी अधिकार समाप्त कर दिया गया और संविधान में समाजवाद शब्द लाया गया। आपातकाल के दौरान बीस सूत्री आर्थिक कार्यक्रम लागू किये गये और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना हुई जिससे आम जन को लाभ पहुँचा। इन्दिरा गाँधी को अटल बिहारी वाजपेयी ने रणचंडी कह कर सम्मानित किया था। हम इन्दिरा जी की देश भक्ति और उनकी नीतियों एवं कार्यक्रमों को उनकी जयन्ती पर स्मरण करना चाहते हैं।

कृपया अपने विचार नीचे कमेंट सेक्शन में साझा करें।

Shivji Pandey

शिव जी पाण्डेय “रसराज”

18 नवंबर 2021


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One Reply to “आगे ही नहीं पीछे भी… क्या बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी?

  1. आपका यह लेख निश्चित रूप से इस देश में आए सभ्यतागत संकट का एक सर्वमान्य और सर्वोच्चित समाधान पेश करता है । एक देश एक रंग एक वेशभूषा एकधर्म ऐसा कोई देश कम से कम पृथ्वी धरातल पर तो नहीं है और नहीं ऐसे किसी देश का लम्बे समय तक बना रहना सम्भव लगता है । रामधारी सिह दिनकर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की भूमिका लिखते हुए जे.एल. नेहरू लिखते है कि भारत को समझने के लिए इस पुस्तक के मर्म को समझना जरूरी है । जो इस पुस्तक को पढ़कर उसके मर्म को नहीं समझेगा वह भारत को भी नहीं समझ सकता । बेहत खूबसूरती के साथ आपने इस देश की आत्मा अर्थात बहुरंगी संस्कृति की खूबसूरती में विविध रंगों को समायोजित किया है । इसे ही कुछ लोग अनेकता में एकता भी कहते हैं और इसी विविधता की महत्ता को डा॰ इकबाल ने भी पलचाना था और यह पंक्तियां लिखी कि ..”कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए जमां हमारा” ।

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