National आगे ही नही पीछे भी

आगे ही नहीं पीछे भी… कौन जीता किसान, सरकार या लोकतंत्र?

आज सुबह नौ बजे का समय भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में इसलिए याद किया जाएगा कि दो वर्ष पहले प्रस्तावित अपने ही तीन कृषि कानूनों का अचानक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वापस कर लेने में किसानों उनकी फसलों, बीमा और बाजार को लेकर किये गये प्रयासों का उल्लेख किया और यह कहा कि किसान संगठन इसके पक्ष में रहे, कुछ किसान संगठन इसके विपक्ष में। आन्दोलनकारी किसान संगठनों को मैं समझा नहीं पाया मुझे लगता है कि मेरी साधना में कमी थी। मैं क्षमा चाहता हूँ और इन तीन कृषि कानूनों को वापस कर लेने की घोषणा करता हूँ। उन्होंने यह भी बताया कि दो वर्षों तक इन्हें लागू न करने का भी वचन दिया गया था। प्रकरण उच्चतम न्यायालय के पास भी चला गया। सरकार ने कानूनों में संशोधन का भी प्रस्ताव रखा किन्तु बात नहीं बनी, प्रधानमंत्री ने यह आश्वासन दिया कि संसद के इसी सत्र में संवैधानिक प्रक्रिया पूरी कर ली जाएगी। उन्होंने विशेषज्ञों, केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों तथा किसानों आदि की एक समिति बनाई जायेगी जो कृषि क्षेत्र को और अधिक उन्नत करने के लिए परामर्श देगी। उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य को अधिक मजबूत और कारगर बनाने का भी आश्वासन दिया। आन्दोलनकारी किसानों से उन्होंने अपने-अपने कर वापस जाने, कृषि कार्य में जुटने और पारिवारिक दायित्व निभाने की आशा की।

कृषि कानूनों को वापस करने पर किसानों ने प्रसन्नता व्यक्त की किन्तु यह भी कहा कि कृषि कानूनों को संसद से समाप्त कराना आवश्यक है क्योंकि संसदीय प्रक्रिया में यह पारित किया गया था। लखीमपुर खीरी काण्ड षड्यन्त्र में आरोपित केन्द्रिय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र को मंत्री मंडल से हटाने की माँग की। जिनके उक्त पद पर बने रहते हुए निष्पक्ष जाँच सम्भव ही नहीं है। पंजाब और उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनाओं के पहले कृषि कानूनों को प्रधानमंत्री द्वारा वापस करने की घोषणा को विपक्षी दलों ने एक राजनैतिक स्टंट बताया ।

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ये कानून अध्यादेश के रूप में लाये गये थे, जिन्हें संसद में विधेयक के द्वारा पारित कराया गया। लोक सभा से पारित होने के बाद राज्य सभा में यह उपसभापति हरिवंश द्वारा पारित घोषित कर दिया। उच्चतम न्यायालय में इन कानूनों के औचित्य पारित होने के प्रक्रिया और संवैधानिकता की लेकर चुनौती दी गई। उच्चतम न्यायालय ने स्थगनादेश जारी कर दिया, सरकार ने भी दो वर्षों तक इन कानूनों को लागू न करने की घोषणा की पिछले वर्ष 26 नवम्बर 2020 से दिल्ली वार्डर पर किसानों का आन्दोलन चला। भारत में इतने लम्बे समय तक चलने वाला आन्दोलन कोई दूसरा नहीं रहा। 26 जनवरी 2021 को किसानों के शान्तिपूर्ण काफिले पर उस समय शर्मसार होने का कलंक लग गया जब लाल किले के प्राचीर पर धार्मिक प्रतीक वाला झंडा फहरा दिया गया। उसके पूर्व ग्यारह बार सरकार और किसान संगठनों के बीच वात्र्ता हो चुकी थी। सरकार का कहना था कि इन कानूनों में संशोधनों के प्रस्ताव लेकर संगठनों के प्रतिनिधि आगे आये उधर किसान संगठनों ने घोषणा कर रखी थी कि तीनों कानूनों को सरकार वापस ले और न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को दिलाने की गारंटी करे। दोनों इस पर दृढ़ रहे। किसान संगठनों ने अगले संसदीय चुनाव 2024 में इसे व्यापक मुद्दा बनाने के लिए आन्दोलन जारी रखने का ऐलान कर दिया था और अपना गैर राजनैतिक चेहरा छिपाने के लिए प्रयास करते रहे। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी यह आरोप लगाती रही कि इस आन्दोलन के पीछे कम्युनिस्ट पार्टियों का हाथ है जो इसी बहाने देश में कृषि आन्दोलन को खड़ा करना चाहते हैं। कोई भी विपक्षी दल ऐसा नहीं जिसमें किसान आन्दोलनकारियों का राजनैतिक समर्थन न किया हो। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी समाजवादी पार्टी, और त्रृणमूल कांग्रेस ने अपना चुनावी मुद्दा भी इन कृषि कानूनों को बनाया और न्यूनतम समर्थन मूल्य का वास्तविक धरातल पर खड़ा करने की पेशकश की। आन्दोलन के दौरान छः सौ से अधिक आन्दोलनकारी मर गये किन्तु सरकार की आँखों में उनके लिए एक बूँद भी आँसू नहीं किन्तु अपने को किसानों का हितैशी प्रचारित करके तालियाँ बँटोरने में वे चुके भी नहीं।

किसान नेताओं ने इस बीच जहाँ जहाँ चुनाव हुए वहाँ पर भारतीय जनता पार्टी को वोट न देने की अपील की, इसका प्रभाव भी देखने में आया और पश्चिमी बंगाल, बिहार के विधान सभा चुनाओं में उत्तर प्रदेश के पंचामिती राज चुनाओं में भारतीय जनता पार्टी को अपेक्षित समर्थन नहीं मिला और विपक्ष को लाभ मिला। कृषि आन्दोलन की शुरूआत पंजाब के किसानो ने की थी। जिसे तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने समर्थन दिया। अकाली दल जो भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) का एक घटक था, उसने गठबंधन से अलग होने की घोषणा की और आज भी अलग ही है। पंजाब में कांग्रेस के अन्तर कलह के चलते कैप्टेन अमरेन्द्र सरकार के स्थान पर चरण दास चन्नी मुख्यमंत्री बने उधर कैप्टेन अमरेन्द्र सिंह ने अपनी नई पार्टी बनाने की घोषणा की। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भाजपा यदि कृषि कानूनों को वापस ले लिया तो वे उनके साथ चुनाव गठबंधन कर सकते हैं। अकाली दल जिस मुद्दे पर एन.डी.ए. से हटा अब वह मुद्दा रह नहीं गया। उधर चन्नी सरकार ने पंजाब के उन आंदोलनकारियों को मुवावजा देने का ऐलान कर दिया जिनकी मृत्यु किसान आन्दोलन के दौरान हो गई ये घटना क्रम राजनीतिक दलों के भविष्य के लिए और मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए किस रूप में अपनी भूमिका अदा करेंगे, यह तो भविष्य की बात है लेकिन कृषि कानूनों को वापस लेकर और न्यूनतम समर्थन मूल्य को अधिक प्रभावी बनाने का आश्वासन देकर प्रधानमंत्री मुद्दा समाप्त कर दिया। इस मुद्दे पर विपक्ष की एकता की आसार भी क्षीण हो गये।

अपने सम्बोधन में श्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में जिस महत्वपूर्ण और पवित्र दिवस पर अपना संबोधन किया और कहा कि इस दिवस पर किसान आन्दोलनों को लेकर और कोई बात करना ठीक नहीं है। प्रधानमंत्री ने आज के दिन पैदा हुई हरितक्रांति और श्वेतक्रांति के साथ-साथ आत्म निर्भर भारत की नींव डालने वाली श्रीमती इन्दिरा गाँधी जो देश की लम्बे समय तक प्रधानमंत्री रहीं उनका नाम तक नहीं लिया गया। यह नई परम्परा भविष्य में क्या रूप लेगी यह आज नहीं कहा जा सकता। लोकतांत्रिक राजनीति में स्पर्धा होती है स्पृहा नहीं।

कृषि कानूनों का बनना और उन्हें वापस लिए जाने की घोषाणा दोनों ही संसदीय लोकतंत्र की विजय है। संसद जन भावनओं का आईना होती है और सरकार केवल संसद के प्रति ही नहीं अपितु वह जन मन के लिए भी उत्तरदायी होती है भारत का लोकतंत्र अधिक परिपक्व होकर निखरा है, जहाँ किसी मुद्दे को इसू न बनाकर अल्पमत वाले विपक्षी दलों को दरकिनार करके जन गण मन को सम्मानित किया गया है, जो शुभ संकेत है।

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Shivji Pandey

शिव जी पाण्डेय “रसराज”

19 नवंबर 2021


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