सन 2017 के विधानसभा चुनाव में बलिया से जो पुरवइया हवा बही, उसने भारतीय जनता पार्टी को सत्तासीन कर दिया उस समय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य थे और यह कहा जाता था कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री वही होंगे। कुशवाहा राजभर जैसी जातीय समुदाय वाली पार्टियों को भाजपा ने अपने साथ लेकर चुनाव में बड़ी जीत हासिल कर ली किंतु नेतृत्व उनके हाथ में नहीं आया और मुख्यमंत्री पद गोरक्ष पीठाधीश्वर आदित्यनाथ योगी को सत्तारूढ़ कर दिया वह उन दिनों उन दिनों लोकसभा सदस्य थे पीठाधीश्वर होने के पूर्व आदित्यनाथ का नाम अजय सिंह था। इस पीठ का कोई ना कोई महंत लोकसभा का सदस्य प्राय: होता रहा, आदित्यनाथ भी 22 वर्ष के उम्र में गोरखपंथ में दीक्षित हुए और 26 वर्ष की उम्र में लोकसभा सदस्य हो गये। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी से इनका अभिन्न सम्बन्ध रहा उन्होंने युवकों में हिंदुत्व के लिए संगठित होने के उद्देश्य से हिंदू युवा वाहिनी के नाम से एक संगठन भी खड़ा किया। आदित्यनाथ पूर्वी उत्तर प्रदेश के चुनावी अखाड़े में भगवा यूनिफॉर्म वालों की टीम के लीडर हैं उन्होंने पूर्वांचल के विकास के नाम पर गोरखपुर और वाराणसी का अभूतपूर्व विकास किया और अयोध्या में राम जन्मधाम को पर्यटन की दृष्टि से विश्व आकर्षण का केंद्र बनाने की योजना लागू की। यह बात और है कि उनकी पार्टी के पाँच विधायक जिनमें दो राज्य मंत्री तथा एक सपा विधायक जो विधानसभा में विपक्ष का नेता एवं बसपा विधायक जो अपनी पार्टी का नेता रहे, किन्तु योगी सरकार के विकास नक्शे से बलिया का गायब रहा। नये विकास का कार्यक्रम तो यहां के लिए प्रस्तावित ही नहीं हुए और पिछली सरकार के द्वारा प्रस्तावित कार्यक्रम भी लागू किए गए थे उन्हें पूरा कराने की भी कोई योजना इस सरकार के पास नही रही। पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यों को आगे बढ़ाने की कोई योजना नहीं थी, यही नहीं कई योजनाएं जो बलिया तक जा सकती थी उन्हें भी यहां से दूर रखा गया और उनकी दिशा मोड़ दी गई और दशा संकुचित कर दी गयी। पड़ताल करने पर यह बात सुनी गयी कि विधायकों के पास अधिकार तो होते ही नहीं और राज्यमंत्री गण चाहे वे स्वतंत्र प्रभार वाले ही क्यों न हो उन्हें नीतिगत निर्णय लेने का कोई अधिकार ही नहीं रहा। ऐसी स्थिति में बलिया के विकास की कल्पना करना भी राज्य शासन का विषय बन गया। बलिया जनपद उत्तर प्रदेश का सर्वाधिक शान्त जनपद है जहां आज तक कोई संप्रदायिक विद्वेष नहीं रहा। 1942 का क्रांतिकारी जनपद विगत 75 वर्षों में प्राय: उपेक्षित ही रह गया फिर भी बढ़िया के बलिदान की तुलना में यहां की उपेक्षा सर्वथा अनुचित होते हुए भी आज तक कोई इस दिशा में जन आन्दोलन का भी खड़ा ना होना यहां के निवासियों की शांत प्रवृत्ति का परिचायक तो है किन्तु उसके भीतर जनक्रांति के बीच कभी भी वृक्ष का आकार ले सकते है आवश्यकता केवल इस बात की है कि बलियावासी अपनी उपेक्षा को कहां तक सहन कर पाते हैं।
इस बार विधानसभा चुनाव बलिया में किस मुद्दे पर लड़ा जाएगा या खुलकर सामने नहीं आ पाया है। मानक के अनुरूप सड़कों नालियों का ना बनाया जाना, गाँवो से मुख्यालय की सड़क को जीर्णशीर्ण अवस्था में रहना, बिजली के तारों का खतरनाक रूप से लटके रहना, नहरों का सूखा रहना, नमामि गंगे योजना से बलिया को दूर रखना, स्वीकृत पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे को बलिया तक आने से रोक कर दूसरी ओर मोड़ देना, बक्सर के सड़क पुल, तुर्तीपार के सड़क पुल को मरम्मत की जरूरत ना समझना, बलिया नगर की सीवरेज योजना का बीस वर्षों में खटाई में डाले रहना, नलकूपों के रखरखाव से वंचित रखना, सरकारी विद्यालय भवनों को ध्वस्त होते रहना, मानक के अनुरूप स्वास्थ्य के क्षेत्र में बलिया का बहुत ही पीछे होना, कोविड के चलते बेरोजगार व्यक्तियों को रोजगार देने की योजना का बलिया में लागू ना होना, खाद्यान्न वितरण का अस्त व्यस्त होना, सरकारी विद्यालय में छात्रों और शिक्षकों का असंतुलन और छात्रों को समुचित शिक्षण से वंचित रखना आदि छोटे-मोटे मुद्दे हैं। बड़े मुद्दों में बलिया के उद्योग शून्य बनाये रखना, एक जनपद एक उत्पाद से भी वंचित रखना, कुशल श्रमिकों के पलायन को न रोक पाना और जननायक चंद्रशेखर विश्वविद्यालय की घोर उपेक्षा करना अन्यथा मेडिकल, इंजीनियरिंग, सूचना प्रौद्योगिकी आदि तकनीकी एवं उच्चशिक्षा के प्रबंध से जनपद को वंचित रखना स्पोर्ट कॉलेज को शुरू न करना और कई गंगा व अन्य नदियों के लिए पुलों को चालू न करना महत्वपूर्ण एवं बड़े मुद्दे हैं।
निवर्तमान विधायकों को अपने अपने कार्यों का विवरण यदि आम करने से चूक गए तो अन्य किस मुद्दे पर बलिया वासियों से वोट माँगेगे, यह एक विचारणीय प्रश्न है। उन्हें यह भी बताना पड़ेगा कि उनके प्रयास यदि कोई हो तो क्यों विफल रह गये तथा उनकी असमर्थता का कारण क्या रहा? यदि बलिया के विकास के लिए उनकी प्रतिबद्धता शासन को प्रभावित नहीं कर सकी और विकास के मुद्दे पर बनी सरकार ने विकास को ही ठेंगा दिखा दिया तो इन विधायकों ने क्या किया। यदि वे चुनाव से पहले बलिया के विकास के मुद्दे और उसकी उपेक्षा से होने वाले परिणाम के मुद्दे पर त्यागपत्र दे दिए होते तो बलियावासी उन्हें अपने आंखों पर बिठा लिए होते और प्रत्याशियों को अपनी मजबूरी और ‘जी’ हजूरी के बीच में फसना ना पड़ता है।
बलिया में इस बार के भी विधानसभा चुनाव में अभी यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है की चुनाव में सीधा मुकाबला होगा या त्रिकोणीय। एक विधानसभा क्षेत्र में ऐसा भी है जहां का मुकाबला चतुष्कोण ही भी हो सकता है। सत्तारूढ़ भाजपा ने जिन व्यक्तियों को अपना टिकट नहीं दिया उन्हें कमजोर मानना और जिन्हें टिकट दिया उन्हें मजबूत समझना राजनीतिक दृष्टि से भूल ही कही जाएगी। इसी प्रकार हारे हुए प्रत्याशी जो टिकट से वंचित रह गए उनके भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं समझनी चाहिए। किसी दल का आश्रय ले लेने से कोई मजबूत नहीं हो जाता और किसी व्यक्ति के पिछले चुनाव में हारने के बाद इस चुनाव में दल बदल कर लेने वाले भी चुनाव को प्रभावित करने में कम महत्वपूर्ण नहीं समझे जा सकते। भविष्य की राजनीति का आकलन करते हुए वर्तमान में राजनैतिक शतरंज के मोहरे किस दिशा में और किस चाल से चलेंगी इसको समझना महत्वपूर्ण तो है लेकिन कठिन अधिक है। दल के में रहकर अपनी महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ा देना और अवसर मिलने पर प्रतिशोध न कर पाना राजनीति में पाशे की चाल हो सकती है और भविष्य की संभावना भी कहा जाता है कि राजनीति में कुछ भी संभव है कुछ भी समझौते अस्थाई नहीं होते कोई भी स्थाई दोस्त या स्थाई दुश्मन नहीं होता। मतदाताओं के समक्ष एक बड़ी समस्या है कि वह एक और नागनाथ हो तो दूसरी ओर साँपनाथ तो मतदाता जाए तो कहां जाय।
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