बलिया में साहित्य सृजन का इतिहास बहुत पुराना है। संस्कृत में पद्यकाव्य और गद्य काव्य दोनों ही यहाँ लिखे गये। यदि महर्षि बाल्मीकि का आश्रम बलिया में माना जाय तो यह कहना पड़ेगा कि संस्कृत का प्रथम महाकाव्य रामायण की रचना भी बलिया क्षेत्र में हुई। रामकालीन अयोध्या की सीमाएँ बलिया के उत्तर सरयू तटीय क्षेत्र खैराडीह और कटौड़ा होकर गुजरती होगी। बौद्ध काल में ऐसा लगता है कि गंगा और सरयू का संगम वर्तमान संगम से लगभग 20 कि०मी० पश्चिम होता होगा। राम कालीन अयोध्या से बाहर महर्षि वाल्मीकि का प्रसाद आश्रम गंगा तट पर रहा होगा जहाँ निर्वासित सीता को आश्रय मिला। महाकवि भवभूति ने अपने उत्तर रामचरित की रचना भी इसी क्षेत्र में की होगी। हिंदी साहित्य से पूर्व संस्कृत उर्दू और पाली भाषाओं के साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से साहित्य को समृद्ध किया। फारसी, उर्दू जब राज भाषाएँ थी तो उन दिनों कैथी लिपि में संतों और सूफियों ने अपने अनुभवों को साहित्य में ढाला। संत प्रवर कबीर साहब भोजपुरी के प्रथम कवि माने गये। गोस्वामी तुलसी दास का साहित्य बलिया की भोजपुरी से प्रभावित रहा। हिंदी के रीतिकालीन कवियों में सेनापति और सुजान का सम्बन्ध बलिया से रहा। गुलाल शाह जैसे संतों ने अपने जैसे आध्यात्मिक अनुभव को साहित्य में ढालने का अवसर बलिया में ही पाया। बलिया में 40 से अधिक महर्षियों के होने के प्रमाण मिलते हैं जिन्होंने अवश्य साहित्य का सृजन किया होगा। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने अपना ऐतिहासिक व्याख्यान ‘भारत वर्षोन्नति कैसे हो सकती है ?’ बलिया में देकर अंग्रेजों को अंग्रेजियत को और अंग्रेज परस्ती को ललकारा तथा स्वतन्त्रता, मातृभाषा और देश प्रेम के लिए अपने को समर्पित न करने वालों को फटकारा तथा नव सृजन के लिए साहित्यकारों में प्राण फूँका और उन्हें दुलारा।20 वीं शताब्दी में साहित्य के बहुमुखी द्वार खुल गये। बलिया में 20 वीं शताब्दी के आरम्भ में ही दूधनाथ उपाध्याय ने गो विलाप जैसी काव्य कृति देकर सोये हुए समाज को जगाने का प्रयास किया। पराधीन भारत में स्वतन्त्रता के लिये उठ रही छटपटाहट ने साहित्यकारों को काफी उद्वेलित किया। बलिया में उर्दू पत्रकारिता और फिर 1925 में स्वतन्त्रता सेनानी हरिद्वार शर्मा वैद्य द्वारा संसार का प्रकाशन यहाँ के लेखकों और साहित्यकारों के लिए प्रोत्साहन का केन्द्र बने। बलिया में संसार और शिवप्रसाद गुप्त द्वारा संस्थापित प्रभात दो ऐसे साप्ताहिक प्रकाशित हुए जिनने यहाँ के साहित्यकारों को संप्रेषण का मंच दिया और कई कवि एवं गद्य लेखक प्रकाश में आ गये। राम सिंहासन सहाय ‘मधुर’, प्रसिद्ध नारायण सिंह ‘प्रसिद्ध’, शिवनारायण सिंह, सारंगधर सिंह, दुर्गा प्रसाद गुप्त, वशिष्ठ नारायण, ‘निर्बल, श्याम बिहारी विरागी, गुरुभक्त सिंह ‘भक्त’, अयोध्या प्रसाद खत्री, गणेश प्रसाद, चन्द्रमान सिंह ‘चन्द्र’, राम अनन्त पाण्डेय ‘बितराग’, प्रभुनाथ मिश्र, जगदीश ओझा सुन्दर, राम सिंह ‘बहादुर’, खैर बहोरवी, नशूर वाहिदी आदि साहित्यकार में आये। इनकी रचनाओं एवं लेखन में देश भक्ति, भाषा प्रेम, जन के लिए समर्पित होने की प्रेरणाएँ, कूट-कूट कर भरी रहीं। महान कवि माखन लाल चतुर्वेदी की जो देशभक्ति धारा, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह तक उन दिनों जाती थी वह बलिया के राम सिंहासन सहाय से होकर हिंदी भाषा एवं साहित्य को उन दिनों विविध विधाओं समृद्ध करने वालों में बलदेव उपाध्याय, परशुराम चतुर्वेदी, हजारी द्विवेदी, भगवत शरण उपाध्याय, आसी सिकन्दरपुरी, सदाफल दास, साहित्य को समृद्धि एवं संवर्धित करने का प्रयास करते रहे। बलिया के कई परिवार विशेष तौर पर टिकादेवरी नगपुरा का शिवप्रसाद गुप्त परिवार वाराणसी में समाचार पत्र एवं ज्ञान मण्डल के माध्यम से साहित्य दीप निरंतर जलाते रहने का उपक्रम किया। बलिया के रेपुरा निवासी रामदीन सिंह ने खड्ग विलास प्रेस पटना में स्थापित किया जिसको भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की पुस्तकों को प्रकाशित करने का श्रेय प्राप्त हुआ। चिलकहर निवासी मुंशी नवजादीक लाल ने कलकत्ता से जो मतवाला समाचार पत्र प्रकाशित किया उसको सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे साहित्यकार को महाप्राण बनाने का श्रेय मिला।
स्वतन्त्रता के पश्चात् 20 वीं शताब्दी के पाँचवें दशक में देशभक्ति की आँच कम नहीं हुई लेकिन स्वतन्त्र भारत कैसा हो इसका मंथन होने लगा, जिससे साहित्य में नये विमर्श उत्पन्न हुए। बलिया में भोजपुरी साहित्य सृजन की लहर सी आ गई। हिंदी और उर्दू में भी साहित्य ने अपने विविध विधाओं के द्वार खोल दिये। बलिया में भोजपुरी के कवि रामविचार पाण्डेय ने राष्ट्रपति भवन तक भोजपुरी का डंका बजाया। भोजपुरी का पहला उपन्यास ‘रहनिदार बेटी‘ सुन्दर जी ने रच कर नया इतिहास बना दिया। 60 के दशक ने बलिया के साहित्यकारों को राजनैतिक विमर्श की भूमिका दी। 1952 और 1957 के दो आम चुनाव सम्पन्न हुए जिनने यहाँ के साहित्यकारों को नये सौन्दर्य, नयी शक्ति और नयी सोच पैदा करने के लिए उद्वेलित किया। नगेन्द्र नाथ भट्ट, शम्भुनाथ उपाध्याय, शम्भुनाथ मिश्र, केशव देव उपाध्याय, गंगेश्वर पाण्डेय ‘चंचल’, बलदेव तिवारी ‘देव’, हरिहर ओझा ‘तरुण’, दौर ‘बलियावी. कमर ‘रसडवी’, रमाशंकर पाण्डेय ‘नवल’, देवनाथ चतुर्वेदी, जाहिद’, शुभ चिंतक पाण्डेय ‘कलंकी’, सुभाषचन्द्र ‘प्रकाश’, सियाराम प्रसाद ‘मनुज’, श्यामसुन्दर ओझा ‘मंजुल’, मदनमोहन सिन्हा मनुज’, लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी, मुक्तेश्वर तिवारी ‘बेसुध’, भैरो प्रसाद गुप्त, उदयनारायण तिवारी, रमाशंकर तिवारी, कुलदीप नारायण राय ‘झड़प’, सीताराम चतुर्वेदी, रसिया मजीद, तारकेश्वर उपाध्याय, रामप्रवेश राय, अंजनी कुमार राय ‘आंजनेय’. श्रीराम वर्मा ‘अमरकांत’, केदार नाथ सिंह, सीताराम पाण्डेय ‘प्रशांत’, विश्वनाथ तिवारी, कृष्ण बिहारी मिश्र, रघुनाथ शर्मा, श्याम मनोहर पाण्डेय, भृगुस्वरूप श्रीवास्तव, काशी प्रसाद ‘उन्मेष’, बासुदेव पाण्डेय ‘विश्वबन्धु’ राजबल्लभ ओझा, सुरेन्द्र बालूपुरी, उदय नारायण सिंह, जगन्नाथ सिंह ‘शास्त्री’, श्यामलाकान्त वर्मा, एम० फारूकी आदि ने साहित्य को विभिन्न दृष्टिकोण से सँवारा। इन दशकों में सौन्दर्य, शोषण, सत्य और सत्ता जनित साहित्य का सृजन किया गया।
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70 के दशक में चीन, पाकिस्तान के हमले और पूर्वी पाकिस्तान को पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होने की घटनाओं ने बलिया के साहित्यकारों में पुनः एक बार फिर देश प्रेम को जगा दिया। इस बीच जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और राम मनोहर लोहिया का निधन देश की राजनीति पर कई ढंग से प्रभाव डालने लगा। एक और साम्यवादी दृष्टिकोण के विरुद्ध साहित्य का सामने आना तो दूसरी ओर विदेशी आक्रमणों के चलते देशभक्ति के लिए साहित्यकारों का उद्दबोधन बलिया की धरती को ऊँचा उठाने में सहयोगी बनने लगा । एक सांस्कृतिक समाजवाद ने गैर कांग्रेसवाद को जन्म दिया, किन्तु इसका लाभ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को नहीं मिल सका। साहित्यकारों का मुख्य कार्य समाज को सत्य से अवगत कराना, अपनी कल्पनाओं के सौन्दर्य को मुखर करना और कल्याणकारी व्यवस्था की ओर प्रयाण करना होता है। यह बलिया का वही दशक है जिसमे शिवशंकर मिश्र ‘विनोद’, जितेन्द्र प्रसाद गुप्त ‘अनबूझ’, अशोक, अवध बिहारी ‘मितवा’ के० पी० श्रीवास्तव, मानव जी, सत्य नारायण वर्मा भयंकर त्रिभुवन प्रसाद सिंह ‘प्रीतम’, विजयशंकर तिवारी, दयाशंकर तिवारी, सुबोध तिवारी उन्मन. नरेन्द्र शास्त्री, शबनम ‘बाँसपारी’, नाशिर ‘बलियावी’, अनवर लतीफी, ‘ध्रुवपति पाण्डेय ‘ध्रुव’, परमेश्वर राय राजेश, कमलाकांत उपाध्याय, नरेन्द्र पाण्डेय ‘बसंत’, अंजनी कुमार श्रीवास्तव, लल्लन बी०ए०, नन्दकिशोर राय, राधामोहन धीरज, सोज सिकन्दरपुरी, यावर टोकवी, हीरालाल ‘अमृतपुत्र, शोभनाथ लाल, शब्दानंद राय ‘शब्द’, गणेश दत्त दुबे, जवाहर लाल ‘कौल’, बद्रीनारायण तिवारी ‘शाण्डिल्य, सीताराम वर्मा ‘अकिंचन’, अनवारूल हक, हफीज बलियावी, दूधनाथ सिंह, शिव स्वरूप सहाय, विजय नारायण सिंह, विजय नारायण सिंह विजय ‘बलियाटिक’, तो साहित्य का भंडार भर ही रहे थे किन्तु उसी दशक में सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ ने बलिया की ऊर्वर भूमि पर साहित्य रच कर महाकवि का जन पदक प्राप्त कर लिया। धूमिल के दृष्टिकोण ने साहित्य को एक नयी दिशा दी और यह प्रमाणित कर दिया कि कोई भी विषय ऐसा नहीं है जो साहित्य सृजन के लिए उपयुक्त न हो। इसी दशक में पूँजीबाद और सामती व्यवस्था को कमजोर करने वाली राजनीति अपनी जड़ जमाने लगी जिसका प्रभाव बलिया के साहित्य सृजन पर भी पड़ा फिर भी यहाँ के साहित्यकार किसी गुट का शिकार नहीं हुए और उन्होंने जो साहित्य सृजित किया उसमें ओज, संवेदना, जीवन्तता देखने को मिली।
भाग – प्रथम
क्रमश:
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अशोक
(वरिष्ट पत्रकार व अधिवक्ता)
14 जनवरी 2022
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