आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा देश, सामाजिक विडंबना का दंस झेल रहे चिकित्सक
मेडिकल छात्र आज एमबीबीएस, एमएस, एमडी, डीएम, एमसीएच की पढ़ाई कर रहे हैं, ये सोचकर क़ि वो एक ऐसी डिग्री के लिए पढ़ाई कर रहे हैं, जिसे पाकर उनकी सारी समस्याएँ ख़त्म हो जाएँगी और वो आसमान छू लेंगे, तो वो कितने नादानी तथा छलावे में जी रहे हैं !
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पिछले कुछ वर्षों में देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को इस देश के नीति निर्माताओं ने इतना जटिल और दुर्गम बना दिया है क़ि अब एमबीबीएस की डिग्री तो एक कठिन यात्रा का प्रथम सोपान मात्र लगती है। युवा साथियों, आपकी समस्याएँ एमबीबीएस या एमडी के बाद ख़त्म नहीं बल्कि शुरू होंगी ।
एक गायनकॉलिजस्ट की डिग्री एमटीपी के लिए पर्याप्त नहीं है, आपको पहले एमटीपी लाइसेन्स लेना होगा।
एक रेडीयोलॉजिस्ट कि डिग्री अल्ट्रसाउंड के लिए पर्याप्त नहीं है, उसे पीएनडीटी लाइसेन्स लेना होगा।
एक एमबीबीएस यदि छोटा मोटा क्लिनिक खोलना चाहे तो नहीं खोल सकता। उसे पहले CEA रेजिस्ट्रेशन करवाना होगा, राज्य प्रदूषण बोर्ड से सीटीओ लेनी होगी । छोटे से छोटे अस्पताल को भी फ़ायर एंड सेफ़्टी एनओसी लेनी होगी ।
इन नियमों की आड़ में आपका इतना शारीरिक, आर्थिक और मानसिक शोषण होगा क़ि आपके दिल की गहराई से आवाज़ निकलेगी क़ि मैं डॉक्टर बना ही क्यों ?
जिस निस्वार्थ सेवा के भाव से आपने कड़ी मेहनत करके नीट की परीक्षा पास की होगी वो भाव इन लाइसेन्सेज़ के लिए पहली रिश्वत देते समय ही उड़न छू हो जाएगा और उस दिव्य जज़्बे की असामयिक भ्रूण हत्या हो जाएगी.
आपके अथक प्रयासों के बाद यदि आपको सारे लाइसेन्स मिल गए और आपका अस्पताल खोलने का सपना पूरा हो गया तो आपका सामना आशा वर्कर, झोलाछाप, ऐम्ब्युलन्स चालकों के एक विशिष्ट तंत्र से होगा। जो दरअसल ये तय करेंगे क़ि आप चिकित्सक के रूप में कितने सफल होते हैं। इन सबके अलावा आपको सुचारू रूप से अपना अस्पताल चलाने के लिए आस-पास के छुट भइयों को किसी न किसी रूप में गुंडा टैक्स या सुरक्षा शुल्क भी चाहे अनचाहे देना ही पड़ेगा। उस समय आपको अपनी सालों की पढ़ाई-लिखाई, मेहनत, स्किल्स सब व्यर्थ लगेंगी।
मरीज़ों और रिश्तेदारों का दुर्व्यवहार, प्रशासन की बेरुख़ी, कन्ज्युमर कोर्ट्स के भारी भरकम जुर्माने, लोकतंत्र के चौथे खम्भे के हाथों ब्लैक मेलिंग, एनएबीएच वालों के क्वालिटी पैरामीटर्ज़ और कुख्यात भारतीय इन्स्पेक्टर राज आपके बचे खुचे जज़्बे की हत्या कर देंगे और चालीस के होने तक आप इस प्रफ़ेशन से छुटकारा कैसे मिले, ये सोचने पर मजबूर हो जाएँगे और अपनी रेटायरमेंट प्लानिंग करने लगेंगे।
याद रखें, संघर्ष के इसी काल खंड में आपको अपने सामाजिक और पारिवारिक जीवन के दायित्व भी पूरे करने हैं।
एक बार पढ़ा था की भारत में डॉक्टर्स की औसत आयु शेष भारतवासियों की तुलना में दस वर्ष कम होती है, अब ये सच ही लगता है।
यह पीड़ा वास्तव में कोई डॉक्टर्स ही बयां कर सकता है. लेख साभार,
डॉ नीरज कुमार यादव,
MBBS, MS (Ophtha), FICM, FID, NDEP
National President Indian Medicos Organization : इंडियन मेडिकोज ऑर्गेनाइजेशन
नेत्र सर्जन, समाजसेवी एवं ब्लॉगर
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