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ददरी मेला : नेताओं के अदूरदर्शी नीति के चलते महंगा हो सकता है ऐतिहासिक मेले का भव्य आयोजन

सरकार से उम्मीद के मुताबिक अभी तक नहीं मिला सरकारी मेले दर्जा, न तो मेले कि सुंदरता के लिए कोई सहयोग राशि

बलिया : उत्तर प्रदेश के बलिया में लगने वाला ऐतिहासिक ददरी मेला का आयोजन अबकी बार महंगा साबित हो सकता है। नगर पालिका प्रशासन ने इस वर्ष 2023 में लगने वाला ऐतिहासिक ददरी मेले का बजट करीब ₹6 करोड़ रखा है। इस बजट को पूरा करने के लिए नपा प्रशासन मेले में दुकान लगाने वाले दुकानदारों से दुकान के लिए पूर्व के वर्षो की अपेक्षा इस वर्ष मिलने वाली जमीन की कीमत दो से चार गुना बढ़ाकर ले रहा है। यहीं नहीं मेला में झूला लगाने वाले संचालकों से भी मोटी रकम का डिमांड कि गयी है। नगर पालिका अध्यक्ष संत कुमार उर्फ़ मिठाई लाल का दावा है कि इस वर्ष ददरी मेले को नया स्वरूप देने के लिए करीब छह करोड़ रुपए खर्च होंगे। जबकि शासन की ओर से मेले की सुंदरता व भव्य रूप देने के लिए एक आना भी तक नसीब नहीं हुआ है ऐसे में बड़े-बड़े दिग्गज कलाकारों को बुलाना कहीं नगर पालिका प्रशासन की ऐतिहासिक नाकामी तो नहीं यह बता पाना किसी के बस की बात नहीं है लेकिन ख्याल लगाने का दौर अभी भी जारी हैहै

ऐतिहासिक ददरी मेला के भारतेंदु मंच पर एक दिसंबर से 17 दिसंबर तक अनेकों सांस्कृतिक कार्यक्रम होने वाले हैं। जिसमें सुनिधि चौहान, मैथिली ठाकुर, अनूप जलोटा, अल्ताफ रजा, साबरी ब्रदर्स, रेमो डिसूजा, लारेंस और गणेश आचार्य के साथ – साथ खेसारी व सपना चौधरी आदि बड़े – बड़े कलाकार मंच से जनपदवासियों का मनोरंजन करेंगे।

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बताते चले कि वर्ष 2022 में बलिया सदर से विधानसभा का चुनाव जीतकर सूबे के परिवहन मंत्री बनने वाले दयाशंकर सिंह ने जनपद वासियों से कहा था कि बलिया में हर वर्ष लगने वाले ऐतिहासिक ददरी मेले को वर्ष 2023 से सरकारी मेला घोषित किया जाएगा और इसके आयोजन के लिए ददरी मेला प्राधिकरण भी बनाया जाएगा, उन्होंने कहा था कि हाल ही में अपने बलिया दौरे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महर्षि भृगु कॉरिडोर के लिए जिला प्रशासन से प्रस्ताव मांगा था। जिससे 2023 से यह मेला भव्य स्वरूप में दिखाई देगा।

लेकिन आमलोगों में इस बात की चर्चा आम है कि एक वर्ष बीतने के बाद भी इस ऐतिहासिक ददरी मेले को कोई सरकारी दर्जा नही मिला, और ना ही इसमें कोई सरकारी पैसा खर्च होगा। कलेजे को चीर देने वाली सच्चाई ये है कि महंगाई की इस दौर में मेले को भव्यता प्रदान करने के लिए इतना पैसा कहां से आयेगा। लेकिन नपा के अध्यक्ष मिठाई लाल का दावा है कि ददरी मेले को इस वर्ष भव्य स्वरूप देने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं रहेगा। इसलिए दुकानदारों से दुकान के लिए जमीन आवंटन के एवज में दो से चार गुना ज्यादा कर नपा प्रशासन वसूल कर रहा है, जिससे मेले को नया स्वरूप दिया जा सके। वहीं चेयरमैन मिठाई लाल का दावा है इस बार अलग से दुकानदारों से कोई वसूली नहीं होगी.

आपको बता दें कि बलिया का ददरी मेला का इतिहास सदियों पुराना है। इस मेले में हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं। यह एक महीने का मेला दो चरणों में आयोजित किया जाता है। पहला चरण कार्तिक पूर्णिमा की शुरुआत से दस दिन पहले शुरू होता है। जिसके दौरान व्यापारी बिक्री/खरीद के लिए पूरे भारत से मवेशियों की उत्कृष्ट नस्लें लाते हैं। लेकिन लंपी रोग फैलने के आशंका के मद्देनजर बीते वर्ष से पशु मेला नहीं लगाए जाने की वजह से मेले पर बहुत असर पड़ रहा है.

दूसरे चरण की शुरुआत शरद पूर्णिमा के दिन गंगा नदी में पवित्र डुबकी लगाने से शुरू होता है। महर्षि भृगु के शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर ददरी के नाम से लगने वाले धार्मिक और ऐतिहासिक मेले की शुरुआत पांच हजार ईसा पहले यानी आज से लगभग 7 हजार 22 वर्ष पहले हुई थी। पौराणिक कथाओं में भी इसका उल्लेख मिलता है। शुरुआत के दौर में इस मेले का स्वरूप याज्ञयिक था लेकिन वर्तमान में यह मेला व्यावसायिक हो गया। मुगल काल में यहां सारे राजे – रजवाड़े आते थे। कभी ढाका से मलमल, ईरान से घोड़े, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, नेपाल से गधे इस मेले में आते थे। ऐसा करके पूरे देश का यह ददरी मेला था। यहां पूरे देश से लोग व्यापार करने आते थे लेकिन आज यह मेला छोटे क्षेत्र में सिमट गया है.

इस मेले की शुरुआत आज से लगभग पांच हजार इसा पूर्व महर्षि भृगु ने किया था.इस मेले को प्रारंभ करने का कारण गंगा और सरयू का संगम है। महर्षि भृगु को जब यह लगा कि गंगा की धारा भृगु आश्रम से आगे जाकर समाप्त हो जायेगी तो इसकी जलधारा को समृद्ध करने के लिए यहां गंगा और सरयू नदियों का संगम कराया। जिस समय इन दोनों नदियों का संगम हुआ उस समय दर्र दर्र और घर्र घर्र की आवाज निकली तो महर्षि भृगु ने अपने शिष्य का नाम दर्दर मुनि और सरयू नदी का नाम घाघरा नदी रख दिया। उस समय महर्षि भृगु ने अपने ज्योतिष ग्रंथ भृगु संहिता का उस मेले में विमोचन किया था। वह याज्ञयिक मेला था और आज का मेला व्यावसायिक है। इस मेले में यज्ञ का कोई स्थान नहीं है। आज का यह व्यावसायिक मेला हर वर्ष अपने आप में सिमटता जा रहा है। शरद पूर्णिमा के दिन गंगा तट पर झंडा गाड़ा जाता है।


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