वर्ष 2021 जिन कारणों से अविस्मरणीय वर्ष माना जायेगा उनमें एक यह भी है कि इस वर्ष में दो व्यक्तियों को संयुक्त रूप से पत्रकारिता में नोबेल पुरस्कार की घोषणा की गयी। इन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर जो मौलिक कार्य किये उन्हें इस पुरस्कार के द्वारा सम्मानित किये जाने का गौरव प्राप्त हुआ। तत्कालीन इन्दिरा गाँधी सरकार ने जो प्रेस परिषद् के गठन की घोषणा की वह 16 नवम्बर 1966 को कार्य रूप में आई। यह परिषद् दिल्ली में स्थापित हुआ जिसका उद्देश्य लोकतन्त्र को उसके उद्देश्यों से भटकने न देने का संकल्प रहा। इस परिषद् से यह अपेक्षा की गई कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पत्रकारिता को अधिक सक्रिय उपयोगी और अधिक मूल्यगत बनाने की चेस्टा करेगा। इस परिषद् को पत्रकारिता के समक्ष आ रही चुनौतियों और उस दिशा में नागरिकों के अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के बीच नीतिगत सन्तुलन स्थापित करने में सक्रिय रहेगा। वैसे भारत के संविधान में प्रेस सम्बन्धी कोई अध्याय नहीं है इसे संविधान के 19 वें अनुच्छेद के अन्तर्गत शामिल करने और उसे मान लेने के लिए उच्चतम न्यायालय ने भी कई बार अपने निर्णयों में अवधारित किया है।
16 नवम्बर की तिथि राष्ट्रीय प्रेस दिवस के रूप में मनाई जाती है। स्पष्ट है कि यह दिवस वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को रेखांकित करने के लिए मनाया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर लम्बे समय से विमर्श चल रहा है। नागरिकों को मूलअधिकार के रूप में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता संविधान प्रदान करता है और पत्रकारिता इसके सशक्त उपकरण के रूप में स्थापित होती है तो कुछ मौलिक प्रश्न भी उत्पन्न होते है एक प्रश्न यह है कि नागरिक अपनी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का उपयोग कैसे और किस माध्यम से करे। 1966 में केवल प्रिंट मीडिया थी और इलेक्ट्रानिक मीडिया के नाम पर सिर्फ रेडियो था आज पचपन साल बाद इसकी अनेक विधाएँ प्रचलित हो गयीं। इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रत्यक्ष समाचार, विमर्श, फीचर, सोशल मीडिया, ट्वीटर, हजारों की संख्या में पोर्टल के अलावे हर हाथ में मोबाईल और अन्य संचार माध्यम कार्यरत हो गये कि पत्रकारों की नीति संघिता निर्धारित किये जाने में जो कठिनाइयाँ पहले से आ रही थी उसमें बढ़ोत्तरी हो गई है। आज की पत्रकारिता के संवाद सूत्र, वह हर व्यक्ति हो गया जो प्रत्यक्षदर्शी है और किसी न किसी माध्यम से संवाद सचित्र एवं ध्वन्यात्मक रूप से एकत्र करने में रूचि रखता है और उसके पास समुचित उपकरण हैं प्रेस परिषद् के समक्ष इन सारी विधियों को अपनी कार्य विधि में सम्मिलित करना भी एक समस्या है। यथातथ्य प्रस्तुति यदि न की जाए तो वास्तविकता सामने नहीं आती। यदि यथातथ्य प्रस्तुति हो जाय तो इसके बहुमुखी प्रभाव होने लगते हैं। कुछ लोग उसे अनुचित, कुछ लोग मान हानिकारक, कुछ लोग मूल्यों के विपरीत कुछ लोग कानून निरूद्ध कुछ लोग संकीर्णता पूर्ण आदि समझने लगते हैं। ऐसी स्थिति में जो बात खटकती है वह यह है कि प्रकाशित या प्रसारित सामग्रियों का सम्पादन नहीं हो पाता है। अपने को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ माध्यम अधिक यथा तथ्य प्रस्तुतियाँ करते है ताकि उन्हें अधिक लोग पढ़, सुन, तथा देख सके। जिनकी पढ़ने सुनने और देखने की संख्या जितनी अधिक होती है मीडिया का वह उपकरण उतने ही रेटिंग में आगे रहता है और उसके विज्ञापन की दर अधिक होती है। विज्ञापन से प्राप्त आय मीडिया की वास्तविक आय होती है यह बात और है कि अपना अधिक प्रचार कराने के लिए मीडिया का उपयोग करने वाले तत्व अघोषित रकम उपलब्ध करा दें और मीडिया उसे स्वीकार कर ले। सत्ता लोलुप लोग भय का भूत खड़ा कर के अतिरिक्त प्रलोभन देकर अपना विश्वसनीय अंग बनाने का आश्वाशन देकर और अधिक सुविधाएँ प्रदान करके उनके विरूद्ध प्रचार न होने देने, अपना ही प्रचार होने देने और लोकतंत्र में असहमति एवं विरोध प्रकट करने के लोकतांत्रिक तरीकों से चल रहे जन संघर्षों को जन संचार से दूर रखने के प्रयास अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात जैसे लगते हैं। सम्पादकों की अनुपस्थिति विज्ञापनों की वर्चस्वता, अघोषित लेन-देन, भय एवं कानूनी दाँव-पेंच, ने भारत में मीडिया को प्रभावित करने से नहीं छोड़ा।
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जिस इन्दिरा सरकार ने प्रेस परिषद् की स्थापना की, उसी पर यह भी आरोप लगा कि देश के एक बड़े अंग्रेजी दैनिक के सम्पादक को अपना प्रभाव डाल कर हटवा दिया। इसी सरकार ने आपात काल के दौरान प्रेस पर सेंसर लगा दिया और मौलिक अधिकारों को निष्प्रभावी कर दिया। भारत की सरकार ने 1990 में एक ऐसा विधेयक लाया जिसे प्रेस की आजादी पर अंकुश कहा गया और उस बिल को काला बिल। सरकार ने उस बिल को वापस ले लिया। कई बार पत्रकारों से संगठनों को पत्रकारिता के लिए आचार संघिता लागू करने की बात आई और कई बार पत्रकारों पर उनके लिए आचार संघिता लादने की भी बात आई किन्तु इन दोनों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अनुरूप नहीं माना गया, फिर भी नैतिक मूल्यों की उपेक्षा कहा तक की जाती।
पत्रकारों को समुचित पारिश्रमिक की व्यवस्था के लिए कई बार प्रयास किये गये। सबसे पहले पालेकर आयोग बैठाया गया जिसकी रिपोर्ट कहाँ तक लागू हुई यह नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार कई और आयोग बैठे उनकी भी रिपोर्ट आई पिछली सरकार ने उसे लागू नहीं किया। वर्तमान सरकार ने उसे लागू करने का आश्वाशन दिया किन्तु सात वर्ष बीत गये लेकिन अभी तक बछावत आयोग की सिपारिसें लागू नहीं हुईं। कहना नहीं होगा कि सभी बड़ी मीडिया बड़े-बड़े पूँजीपतियों के ही हैं। यदि सिफारिशे लागू कर दी जाती हैं तो पूँजीपति वर्ग को काफी हानि उठानी पड़ेगी। जिसका प्रभाव सरकारी राजनैतिक दल पर भी पड़ेगा। जितने भी आयोग बैठाये गये उन्होंने उच्चवर्गीय दृष्टिकोण से अध्ययन किया। छोटे और मध्यम श्रेणी की मीडिया वास्तव में स्वरोजगार योजना के अन्तर्गत है जो किसी भी कीमत पर उसे स्वीकार नहीं कर सकते। वास्तव में आँचलिक, लघु एवं मध्य श्रेणी की मीडिया के लिए अलग आयोग बैठाने की आवश्यकता है।
लेकतंत्र में पत्रकारिता महत्वपूर्ण है और एक स्तम्भ के रूप में कार्य करती है तो उसे कार्य करने की सुविधाएँ और सामाजिक सुरक्षा के अतिरिक्त आपराधिक तत्व से भी सुरक्षा की गारंटी मिलनी चाहिए। यह दुःखद् है कि मीडिया अपनी प्रस्तुतियों में पक्षपात नहीं करती किन्तु उसे पक्षधर करार दिये जाने के प्रयास होते हैं। विगत सात वर्षों में पूरे देश में लगभग पचास पत्रकारों की हत्याएँ हो गईं जो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की गारंटी के लिए चुनौती हैं और सामाजिक सुरक्षा की पोल खोलने वाली है।
मनमोहन सरकार ने 2005 में नागरिकों को सूचना का अधिकार दिलाकर बहुत लोकतांत्रिक कार्य किया किन्तु यह नहीं समझना चाहिए कि इस कदम से नागरिकों को जानने का मूल अधिकार मिल गया। जानने का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार तथा सूचना का अधिकार सभी अकेले अधूरे हैं यह और भी दुःखद हो जायेगा जब अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और सूचना के अधिकार पर कोई अंकुश लगाया जायेंगा। वास्तव में प्रेस दिवस तभी सार्थक होगा जब वह देश के सभी नागरिकों को उसकी हर जिज्ञासा की पूर्ति के लिए सक्रिय भूमिका निभाने हेतु सक्षम बन जाय।
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शिव जी पाण्डेय “रसराज”
16 नवंबर 2021
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