भारत का मूल चिंतन साम्यवादी है जिसमें इस बात की गुंजाइस भी है कि यदि साम्य असन्तुलित हो गया तो उसे सन्तुलित कर लेना चाहिए ताकि पुनः साम्य की स्थिति बन जाय। यदि मानवीय प्रयासों से असन्तुलन दूर होने की सम्भावना क्षीण हो जाय तो इस बात की भी सम्भावना बनी रहती है कि कोई महा मानव विशिष्ठ ऊर्जावान, अति चैतन्य, देवदूत, नवीं या पैंगम्बर अथवा दिव्य पुरुष, यहाँ तक की अवतारी पुरुष, असन्तुलन को व्यवस्थित कर लेगा और पुनः असन्तुलन दूर होकर साम्य की अवस्था प्राप्त हो जाएगी। साम्य की अवस्था सम्पूर्णता का और वैषम्य की अवस्था असाम्य, असन्तुलन अथवा अव्यवस्था के कारण होती है। कभी इम्ब्राहिम, कभी मूसा, कभी ईशा, कभी मुस्तफा, कभी गाँधी, कभी मार्क्स, कभी लेनिन, कभी माओ ही नहीं अपितु कभी कपिल, कभी व्यास, कभी पाणिनि, कभी चरक, कभी लुकमान, कभी हेनीमैन, तो कभी स्मिथ, कभी मिल, कभी मार्शल, कभी किंग्स आदि हर क्षेत्र में अपने विचार, अनुसंधान और नवाचार लेकर आते रहे है और जाते रहेंगे ताकि विश्व में असन्तुलन असाम्य और अव्यवस्था न रह पाये।
ज्योतिषपिण्डों की स्थिति, गति एवं प्रभाव में असन्तुलन, पर्यावरणीय असन्तुलन और उसका प्रभाव, प्राकृतिक संसाधनों के सद्पयोग एवं दुरपयोग अथवा अल्प उपयोग से उत्पन्न अव्यवस्था को स्वयं प्रकृति अपनी अन्तरक्रियाओं द्वारा संतुलित कर लेती है और अपनी सृष्टि में पल रहे अवांक्षनीय तत्वों का नियंत्रण करके और संतुलनकारी उत्पन्न करके संतुलन स्थापित कर लेती है। मानवीय प्रयासों से उत्पन्न प्राकृतिक असंतुलन को दूर करने के लिए प्रकृति दण्डात्मक व्यवस्था भी करती है। मनुष्य को विवेकशील प्राणी मानने के जितने भी कारण हैं यदि व्यतिरेक उत्पन्न होता है तो उसके विरूद्ध संघर्ष की श्रृंखला बनने लगती है और एक दिन उसे ध्वस्त कर देती है। इसे भारतीय चिंतन में ब्रह्मा, विष्णु और महेश अर्थात् रचना, पालन और परिवर्तन के मध्य संतुलन समझा जाता है। यदि रचना होती रहे और उनका जीवन काल के अधीन न हो तो, जीवन की स्थिति बनेगी ही नहीं, इसलिए रचना निरर्थक सिद्ध होगी। इसी प्रकार यदि जीवन की स्थिति बनी हुई है और उसमें संघार तथा परिवर्तन नहीं हो रहा है तो, रचना तो होगी किन्तु नवाचार सम्भव नहीं होगा, जिसका परिणाम अव्यवस्था और असन्तुलन होगा। लोग दो भाग में बँट जाएँगे, एक कहेगा कि भौतिक कारणों से असन्तुलन हुआ है, तो दूसरा कहेगा दैवीय कारणों से। यही देववाद और अदेवबाद का संघर्ष चलता रहा है और असन्तुलन बनता रहा है। जिसे विशेष शक्ति द्वारा संतुलित करने का प्रयास भी होता रहा है। हम यहाँ कुछ दृष्टांत प्रस्तुत करना चाहेंगे जिससे यह प्रमाणित हो सके कि भारतीय मूल चिंतन साम्यवादी है, विषमता अकारण नहीं, कारणों को दूर कर देने पर विषमता दूर भी हो सकती है। महर्षिकपिल का महान सांख्य चिंतन प्रकृति के मूल स्वरूप को साम्य की अवस्था मानता है। मूल प्रकृति जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का मूल है वह अव्यक्त रूप में सत्व, रज व तम गुणों और द्रव्यों की साम्यावस्था है। सृष्टि के लिए प्रथम विकृति बुद्धि, दूसरी अहंकार, तीसरा मन और चैथा द्रव्य गुण और पाँचवा भौतिक तत्व व्यक्त रूप में कार्य कारण सम्बन्ध के अन्तर्गत क्रियाशील रहते हैं। सरल रीति से यह कहा जा सकता है कि सृष्टि में विषमता अनिवार्य है किन्तु असंतुलन अवांक्षनीय है। फिर भी उसका मूल साम्यावस्था है विषमावस्था नहीं। इस सिद्धांत के अनुसार सहज साम्य को बुद्धि विषम बनाती है जो अहंकार आदि को जन्म देकर विषमता की श्रृंखला उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है। विवेकी मानव साम्य की ओर उन्मुख होता है और अपनी स्थिति विषमता से पृथक् प्रकृति के साथ बना लेता है। तब उसे अपनी चैतन्य शक्तियों का विवेक जागृत होता है और विषमता के कारणों को समझकर असन्तुलन दूर करने का प्रयास करता है। असन्तुलन सत्य नहीं, विषमता सत्य नहीं, और अव्यवस्था भी सत्य नहीं। दुःखों का कारण विषमता है और साम्यपूर्ण विवेक दुःखों से पूर्णतः छुटकारा पा लेने का साधन।
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महर्षि चरक ने स्वास्थ्य के स्वरूप का निरूपण करते हुए बताया कि कफ, पित्त और वात की साम्यावस्था होने पर स्वास्थ्य और विषमता होने पर रोग उत्पन्न होता है। शरीर में ये तीनों तत्व द्रव्य के रूप में होते हैं जिनका नियमन जल, अग्नि और वायु करते हैं। विषम अवस्था में कफ के बढ़ने पर अथवा उसके घट जाने पर, पित्त के बढ़ जाने पर अथवा घट जाने पर, वात के बढ़ जाने अथवा घट जाने पर रोग उत्पन्न हो जाता है इन्हें त्रिदोष कहा जाता है। जिनका सन्तुलन में रहना शरीर के लिए ही नहीं अपितु मन और बुद्धि के लिए भी आवश्यक है। हकीम लुकमान ने इन त्रिदोषों के अतिरिक्त एक और दोष खोज निकाला जिसे हम एकतृत गंदगी कह सकते हैं। शरीर को गंदगी से मुक्त और त्रिदोष की साम्यावस्था में रहना चाहिए, जब गंदगी शरीर में हो जाय तो उसके सफाई की व्यवस्था और त्रिदोष में असन्तुलन हो जाए तो उसे संतुलन में लाने के लिए समुचित साधनों का उपयोग आवश्यक होता है। भारतीय चिन्तन के अनुसार दोषों का शमन, दोषों को कम करके या अन्य दोषों को बढ़ाकर किया जा सकता है जिसका उद्देश्य एकमात्र साम्य की अवस्था में शरीर को लाना होता है। यह चिंतन वेद का अंग है जिसे आयुर्वेद कहा गया। आयुर्वेद केवल चिकित्सा पद्धति नहीं, अपितु यह आयु का ज्ञान है विज्ञान है जो पूर्वजन्म से प्राप्त प्रारब्ध के दोषों का शमन भी करता है। प्रारब्ध के दोषों को आधुनिक भाषा में जेनेटिक प्राब्लम भी कहा जाता है। महर्षि चरक ने अपनी चरक संघिता में जिस आयुर्वेद का उल्लेख किया है उसका उद्देश्य और परिणाम शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विषमता, असन्तुलन और अव्यवस्था को दूर करना तो है हीं, उसका उद्देश्य आत्मिक उत्थान, शांति और आनन्द प्राप्त करना भी है।
भारतीय चिंतन में यह मेरा, यह दूसरे का मानना संकीर्ण सोच समझा जाता है और विवेकी मानव (पंडित) यानी सत्य और असत्य का विवेक रखने वाला समदर्शी होता है। उदार व्यक्ति मैं और तेरे का भाव नहीं रखता और सम्पूर्ण बसुधा को अपना कुटुम्ब समझता है। मैं मेरा, तेरा, तूँ का भाव संकीर्ण भाव है जिसका भारतीय चिंतन में कोई स्थान नहीं। सभी सबके हो और सभी सबके लिए हो, ऐसा भाव हर पालन कत्र्ता (जिसे विष्णु व्यवस्था का नायक) कहा जाता है को अपनी नीतियों द्वारा स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए ताकी विषमता असन्तुलन और अव्यवस्था न हो तथा साम्य की स्थापना हो। इस व्यवस्था को भारत में एक रामराज्य की अवधारणा द्वारा बताने का प्रयास किया गया है -‘राम प्रताप विषमता खोई’, ‘नहीं दरिद्र कोउ दुखी न दीना’, नहिं कोउ कुबुध न लच्छन हीना। कार्लमाक्र्स के वैज्ञानिक साम्यवाद में भी ये तत्व निहित हैं। जनलक्ष्मी जो सबकी है उस पर किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष का आधिपत्य स्वीकार नहीं। एक राज्य की स्थापना ताड़का, सुबाहु, मरीच, मेघनाद, कुम्भकर्ण और महा अहंकारी रावण का बंदरो, भालुओं द्वारा विनष्ट हो जाने के पश्चात् हुई और रामराज्य अयुद्ध (अयोध्या) की स्थिति में स्थापित बताया गया। मार्क्स ने भी साम्यवाद की स्थापना के लिए सबकी लक्ष्मी को बंदी बना लेने वालों का सफाया करना बताया। साम्यवाद स्थापित हो जाने पर वर्ग विहीन सम्पन्नता में समता, राज्य विहीन विश्व की कल्पना साकार होगी और मानवता की पूर्णता परिलक्षित होगी, जिसमें प्रकृति, वनस्पति, पशु और मानव सभी सन्तुलन में रहेंगे और अव्यवस्था निर्मूल होगी।
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शिव जी पाण्डेय “रसराज”
12 जनवरी 2022
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