आज गांधी जी की पुण्यतिथि है। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गाँधी के नाम से विश्वविख्यात मोहनदास करम चन्द गांधी की दिल्ली के बिड़ला भवन प्रार्थना स्थल पर हत्या कर दी गई। भारत के इतिहास का एक अध्याय शेष हो गया। इस अध्याय का आरम्भ अंग्रेजों के नस्लवाद से शुरू हुआ, इंग्लैंड में सांस्कृतिक विरासत से परिपुष्ट होता हुआ 19वीं सदी के पहले दशक में अपने सर्वेक्षण और अध्ययन से होता हुआ अंग्रेजों के शोषण नेटवर्क को चुनौती देते हुए सत्य की मशाल लेकर भारत की आजादी के संघर्ष को रोशनी देते हुए सत्याग्रह और अहिंसा के अभूतपूर्व जनमानस के आंदोलनों के रथ पर सवार होकर देश को आजाद करा लेने के संकल्प पूरा होने के पश्चात अंतरिम सरकार का गठन हो जाने पर कुछ ही महीनों में वह समाप्त हो गया। महान वैज्ञानिक एल्बर्ट आइंस्टीन ने सहज भाव से कहा कि आने वाली पीढियां बहुत मुश्किल से यह विश्वाश करेगी कि इस धरती पर महात्मा गाँधी जैसा भी कोई व्यक्ति पैदा हुआ था। मैंने अपने बड़े बुजुर्गों से सुना था कि गाँधी जी की मृत्यु को सुन कर गाँव हो या शहर पूरे देश ने सन्नाटा छा गया, देश के लगभग 80% घरों में कई दिनों तक चुल्हे नही जले, ऐसा लगने लगा कि हर घर मृत्युदंश का शिकार हो गया है और यह शोक की बदली महीनों तक छायी रही, उत्सव, त्यौहार, सभी बन्द रहे। इस सदमे से देश अभी तक नही उबर पाया है।
इस बात की चर्चा की जाती रही है कि भारत के विभाजन से असन्तुष्ट विचारधारा की भेंट गाँधी चढ़ गये। दूसरा कारण यह समझा जाता रहा है कि भारत से अलग हुए पाकिस्तान को कुछ पैसे देने की वकालत करने वालो के साथ गाँधी थे। तीसरा कारण यह कहा जाता है कि गांधी की वजह से उन आक्रांताओं को बल मिला जिनकी वजह से देश सैकड़ों वर्षो तक उनके अधीन रहा और मौका परस्ती का फायदा उठाकर उन्होंने अलग देश बना लिया। चौथा कारण यह कहा जाता है कि गांधी हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के शिकार हो गये। पाँचवा कारण यह कहा जाता है कि अंग्रेज परस्त ताकते देश की आजादी के विरुद्ध थी इसलिए उन्होंने अपने नेटवर्क के अंतर्गत गांधी जी की हत्या कराना उचित समझा और भी कारणे कहे सुने जाते है किन्तु हत्या की राजनीति करने वालों ने क्या कभी यह सोचा कि गांधी जैसे व्यक्तित्व की हत्या करके भारत का यश और गौरव बढ़ेगा या घटेगा। दुनिया को यह मालूम है कि सत्य के पक्षधरो की हत्या अतिवादी कट्टरपंथी राजनीति द्वारा बहुत पहले से होती रही है। पौराणिक संदर्भो दो और संदर्भों को छोड़कर ऐतिहासिक घटनाओं की चर्चा की जाय तो ‘अपने को जानो’ का दृष्टिकोण रखने वाले सुकरात को विष का प्याला पीना पड़ा।
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प्रेम करुणा और क्षमा के प्रतिमूर्ति यीशु मसीह को उन्मादी धार्मिक कट्टरवाद ने सूली पर लटका दिया। वैज्ञानिक गैलीलियो को सूर्य की स्थिरता और पृथ्वी की गतिशीलता के सत्य को उजागर करने पर मौत के घाट उतार दिया गया क्योंकि यह बात उनके धर्म ग्रंथों से मेल नहीं खाती थी। स्वामी दयानंद सरस्वती को पौराणिक कट्टर वादियों ने साजिश रचकर पिसा हुआ शीशा दूध में मिलाकर इसलिए पिला दिया क्योंकि उन्होंने वैदिक धर्म दर्शन की पुनर्स्थापना का प्रयास किया। इस प्रकार की भी चर्चाएं लोक प्रचलित हैं कि महाकवि कालिदास और पं० जगन्नाथ जैसे उच्चकोटि के साहित्यकार भी ईर्ष्यावस मौत के घाट उतारने के लिए विवश किए गये। देश की आजादी की लड़ाई में शहीदों ने इसलिए गोलियां खाई और फांसी पर हँसते-हँसते चढ़ गये क्योंकि उन्होंने पराधीनता स्वीकार नहीं की और और उनके काले कानूनों का विरोध किया। ऐसे संगठनों की भी कमी नहीं जो आजादी की लड़ाई के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों का साथ नहीं दिया, अंग्रेजी हुकूमत को बल देते रहे या उनकी दलाली करते रहे, माफी मांगकर देश के भीतर अंग्रेजों की फूट डालो की नीति को आगे बढ़ाते रहें। सम्मान और सत्ता पाने का प्रयास भी करते रहे। चक्की में पिस जाना और चक्की में पिसना दो बातें हैं। गांधी किसके शिकार हो गये ? इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिसने सत्य अहिंसा, सहिष्णुता, संयम, स्वालंबन, प्रेम, दया, क्षमा की बात की, मानवता की बात की, संकीर्णता को नकारा और समावेशी व्यापकता को आत्मसात करने की बात की उसे अपमानित होना पड़ा, धरासायी होना पड़ा। क्या गाँधी भी ऐसे भी थे? दुनिया का इतिहास साक्षी है बात विकास की की जाती है किन्तु विकास का घोड़ा खूंटे पर से खुल नही पाता। रूढ़िग्रस्त विचार उसी सीमा तक विकास को स्वीकार भी कर लेते हैं जहां पर उनका फंडामेंटलिज्म (बुनियाद परस्ती) या मूल विचार पर कोई आंच नहीं आती। ऐसे लोग हर विकास को विकार ही मानते हैं। भारत ही एक ऐसा देश है जहां रूढ़िग्रस्त, परंपरावादी विकासमान, वैज्ञानिक और सहिष्णु, मानवतावादी एक दूसरे के अनुकूल तथा प्रतिकूल सभी विचारों, भावनाओं और क्रिया कलापों को स्वतंत्र रूप से फलने-फूलने का माहौल अनादि काल से मिलता रहा, चाहे जिस रूप में जो विचार आया रहन-सहन और जीवन शैली आई उन्हें आत्मसात कर लिया गया। यही कारण है कि विपरीत वर्णो वाली नदियां जहां-जहां एक दूसरे से मिलती है वे सभी स्थान तीर्थ हो जाते हैं। गंगा इसीलिए पवित्रतम मोक्षदायिनी और कलुषहरणी मानी जाती है क्योंकि उसमें सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियां घुल मिलकर के अपना अस्तित्व खो बैठती हैं। भारतीय संस्कृति के विकासमान प्रवृत्ति भी समावेशी, सहिष्णु, स्वतंत्रतावादी और शिवत्व को धारण करके चलने वाली रही है। गांधी क्या भारतीय संस्कृति के इन मूल्यों के विपरीत थे और भारतीय संस्कृति की क्या वे कोई दूसरी व्याख्या कर रहे थे कि उन्हें गोली मारी गयी ? क्या गांधी धार्मिक सहिष्णुता और धर्माधारित समाज के मध्य समरसता तथा विश्वास एवं पूजा पद्धतियों की स्वतंत्रता के हिमायती नहीं थे ? फिर उनकी हत्या क्यों ? कपूर आयोग का महात्मा गांधी की हत्या किसी सिरफिरे की करतूत बता कर उन तत्वों का पर्दाफाश नहीं कर पाती जो भारतीय संस्कृति का ढ़िढोरा तो पीटते हैं किंतु उनके मूल सिद्धांतों को अपने विचार, आचार और आहार में मूर्त रूप नहीं दे पाते। यही वजह है कि गांधी की हत्या हुई और गांधी जैसे व्यक्तियों की हत्या होती रहेगी। जब कभी अहिंसा की जगह हिंसा लेने लगेगा, स्वाधीनता का सत्य निहित स्वार्थों की भेंट चढ़ेगा, संस्कृति की संस्कारवादी संकीर्ण सोच परक व्याख्या प्रस्तुत करके मनभेद पैदा होंगे, दुसरो की पीड़ा में सुख दिखने लगेगा, शोषण को पराशक्तियों का उपहार माना जाने लगा, साधन की शुद्धता का विचार त्याग कर साध्य की प्राप्ति के प्रयास होंगे, नीति को छोड़कर अनर्थवादी अर्थनीति अपनाई जाएगी, प्रकृति का संतुलन बिगाड़ने वाली श्रमशक्ति को तिरस्कृत करने वाली और उत्पादन तथा उपयोग के मध्य विषमता कारक बाजार प्रणाली की चक्की में पूरे समाज को पिसते रहने के लिए छोड़ा जाएगा, तो गांधी का जन्म लेना अनिवार्य है और उसकी निशंस हत्या भी नियति का खेल करार दी जाती रहेगी। यह क्रम दुनिया में समय-समय पर देखा जाता रहा है। किंतु उसकी परख करके पुनरावृत्ति से बचने की कोशिश नहीं की जाती जो दुनिया के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। यह चिंता और चिंतन का विषय है कि क्या गांधी की हत्या किस संस्कार को भारतीय संस्कृति का अंग स्वीकार किया जाए अथवा नहीं ? रामनरेश त्रिपाठी ने अपना शोक निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त किया था-
बड़े शौक से सुन रहा था जमाना, तुम ही सो गए दास्तां कहते-कहते..
शिवजी पाण्डेय ‘रसराज’
30 January 2022
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