आगे ही नही पीछे भी

आगे ही नहीं पीछे भी… ऐसा – वैसा चाहे जैसा

सनातन से तात्पर्य पुरातन से है। वैदिक ज्ञान उसमें भरा हुआ मुक्त चिन्तन अर्थात् विज्ञान और उसके आधार पर विमर्श युक्त चिन्तन अर्थात् उपनिषद् के समर्थन में विभिन्न विमर्श पद्धत्तियों के साथ छ: शास्त्र भी प्रणीत हुए । वेद का अर्थ ज्ञान और ब्रह्म होता है। उपनिषद का अर्थ समीप आने के लिए से जाना जाता है। समीप जाने वाला आत्मा, मन्तव्य ज्ञाता, गन्तब्य, ज्ञेय आत्मा और आत्मा का ज्ञान अर्थात् ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का ऐक्य है। सरल भाषा में कहा जा सकता है कि जानने वाला जब ज्ञेय को जान लेता है तो उसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उपनिषद् बताते हैं कि आत्मा को जान लेने पर सर्वस्व का ज्ञान हो जाता है इसलिए आत्मा को जानने का प्रयास होना चाहिए। आत्मा को जानो, आत्मा को देखो, आत्मा को सुनोऔर आत्मा का ध्यान करो अर्थात् अपने इससे में ही अपने को खोज लिया जाय। जीवन का श्रेयह प्रगट हो जायेगा वैदिक धारा में महर्षि कपिल का सांख्य, महर्षि पतंजलि का योग, महर्षि कणाद वैशेषिक, महर्षि गौतम का न्याय, महर्षि जैमिनि का मीमांसा एवं महर्षि वादरायण का वेदान्त ये छ:शास्त्र है। ये सभी शास्त्र वेदों को अपौरुषेय आप्त ज्ञान मानते है। पौराणिक सनातम धारा वेदों के समर्थन में तो है किन्तु उसमे रूपकात्यकता जो है उनका इतिहास भी पुराणों में ही है सनातन वैदिक धारा पुराणों को निगम की भाँति मान्यता नहीं देती किन्तु पुराण वेदों के विरुद्ध नहीं हैं। वैदिक वांग्मय की व्याख्या के सम्बन्ध में भी कहा जाता है कि एक भाष्य संस्कृत के आधार पर आचार्य सायण ने किया और दूसरा भाष्य वैदिक ब्याकरण और निघंट पर आधारित है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सायण भाष्य को अमान्य किया और वैदिक व्याकरण के आधार पर नया भाष्य भी किया।

पुराणों की एक धारा ऐसी है जो पुराणों को रूपकात्मक दृष्टांत वांग्यमप बताती हो तो दूसरी धारा उसे ऐतिहासिक सिद्ध करने में लगी हुई है। पौराणिकों ने जिस सनातन धर्म की नींव रखी उसका आधार आस्था उत्पन्न करना, और उपासना और पूजा के बाहय साधन अपनाना रहा। पौराणिक आराध्य जगत के उत्पादक, पालनकर्ता और संघारकर्ता के रूप में प्रतिष्ठि हुए। वेदों द्वारा निरूपित ब्रहम अनेक देवी देवताओं के रूप में, विभिन्न पुराणों द्वारा स्थापित किये गये, मान्य ठहराये गये और पूज्य बनाये गये। पुराणों ने बहुदेववाद की स्थापना की। पुराणों का देवी-देवता सगुण और साकार कर्मों का फल दाता, पाप नाशक, मुक्ति और भक्ति प्रदाता कृपालु, आनन्द एवं प्रेमस्वरूप अवतारी और अपने भक्तो का पक्षधर तका भक्तों के शत्रु को शत्रु मानने वाला होता है। पौराणिक कर्मकाण्ड में यज्ञ भी सम्मिलित है किन्तु अनुष्ठान का विशेष महत्व है। इस व्यवस्था में जो अनुष्ठान भक्तों द्वारा नहीं हो पाता, वह उसके पुरोहित या आचाप सशुल्क पूरा कर लेते हैं। इस प्रकार सनातन पर गतिक धारा से आस्था, भक्ति और उनके लिए बनाये गये विशेष स्थलों का महत्व होता है। रूपकात्मक पौराणिक यह मानते है की पुराणों के कथानक सत्य नही अपितु सत्य के निदर्शक है और भक्ति और आस्था के सहारे चित को परिष्कृत करने के साधन है और वैदिक सिद्धांतो की व्यावहारिक व्याख्या करने में सक्षम है। पौराणिक वेदों के सायण भाष्य को मान्यता देते है।
भारत में जैनधर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव ने किया। यह धर्म वेदों और पुराणों को अमान्य करता है और ब्रह्म, ईश्वर या भगवान जैसी सत्ता में विश्वास नही करता। आचरण की शुद्दता, धर्म के अहिंसात्मक स्वरुप की प्रतिष्ठा और अपने निज चैतन्य स्वरुप को उच्चतम शिखर तक विकसित करने का निर्देश करता है।

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यदि ईश्वर भी हो तो वह अपनी आत्म सत्ता में ही समाहित होना चाहिए। जैमधर्म के अनुसार जिन अवस्था को प्राप्त करना जीवन का उद्देश्य है। यह अर्हत अवस्था है और इस अवस्था के महानतम व्यक्ति तीर्थंकर के रूप में कभी-कभी आते हैं। इस धर्म की भी दो धाराएँ दिगम्बर और श्वेताम्बर हो गयीं। दिगम्बर नग्न रहते हैं और श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। जैनधर्म के अपने ग्रंथ है जिन पर विश्वास करके जैनी अपने चिंतन और दिनचर्या को अनुशासित करते हैं। जैनधर्म को ‘अर्हत’ धर्म भी कहा जाता है।

लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म दर्शन भारत में अपने अनूठे अन्दाज में सिद्धार्थ जो अपनी साधना पूर्ण करने के पश्चात सम्बोधि प्राप्त होने के उपरान्त गौतमबुद्ध कहलाये। बुद्ध ने वेदों ओर पुराणों को जीवन में दुखों की निवृत्ति के लिए अनावश्यक बताया। पुस्तकों का अध्ययन को वास्तव में दुखो का अनुभव करके उसके कारण और निवारण के लिए प्रयत्नशील होना अधिक आवश्यक है। बुद्ध ने जगत की सत्ता के साथ-साथ आत्मा की सत्ता को भी कर दिया। बुद्ध ने सामाजिक भेद को स्वीकार नहीं किया और जातिवाद का पूर्ण विरोध किया वेदों में वर्ण व्यवस्था तो है, किंतु जातिवाद नहीं। पुराणों में जातिवाद परिलक्षित होता है। सामाजिक समरसता और भेदभाव रहित अपनी जीवनचर्या को किसी पुरोहित, धर्माचार्य अपवा किसी विशेष ग्रन्थ, विचार, व्यक्ति के आश्रित न रह कर स्वतन्त्र भाव से चिंतन (बुद्धम शरणम गच्छामि), मानव धर्म अपनाने के लिए प्रयत्नशील (धम्मं शरणं गच्छामि) तथा अपने ज्ञान और अनुभव को सब में बांटने (संघं शरणं गच्छामि) के सूत्र वाक्यों पर आधारित होने के चलते यह धर्म तीव्र गति से फैला। फिर भी बुद्ध को अवतारी और महात्मा मानने के प्रश्न पर बौद्ध धर्म की दो धाराएँ महायान और हीनयान हो गयी। बौद्ध धर्म के मूल ग्रंथ ‘त्रिपिटक’ कहलाते हैं। इस धर्म को तथागत धर्म भी कहा जाता है।

क्रमशः – 3

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Shivji Pandey

शिव जी पाण्डेय “रसराज”

11 दिसंबर 2021


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One Reply to “आगे ही नहीं पीछे भी… ऐसा – वैसा चाहे जैसा

  1. आदरणीय पाण्डेय जी,
    आपको साधुवाद, आपने बहुत गहनता और सरलता से इस विषय को हम जैसे पाठकगणों के लिए तैयार किया, भारतीय संस्कृति परम्परा और उस समय के आधुनिक सोच वाले महर्षियों या कह सकते है उस काल खंड के वैज्ञानिक के बारे में प्रकाश डालना और उसको लोगो तक पहुँचाना ये अपने आप में भी एक नयी सोच है. आप से अनुरोध है की महर्षि पतंजलि का योग, महर्षि कणाद का वैशेषिक, महर्षि गौतम का न्याय, महर्षि जैमिनि का मीमांसा एवं महर्षि वादरायण का वेदान्त ये छ:शास्त्र है इन सनातम और पुरातन महर्षियों के अलग शास्त्रों का वर्णन , स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सायण भाष्य को हम लोगो को अपने लेख के माध्यम से सुलभ उपलब्ध कराये । जैन धर्म और बौद्ध धर्म के साथ साथ गौतमबुद्ध जी का विस्तृत प्रस्तुति भी प्रकाश डालियेगा। गौतमबुद्ध जी के धर्म दर्शन भारत के साथ साथ विश्व के कई भागो में आज भी प्रचालन मे है अन्य कोई धर्म क्यों नही है ?
    आपसे से आग्रह यही है की इस महान महर्षियों के धर्म दर्शन और उनके समाज के प्रति योगदान के बारे मैं अलग अलग प्रस्तुति उपलब्ध कराये जिससे हम जैसे जिज्ञाशु लोगो की कुछ ज्ञान मिले । आपको इस लेख के लिए वंदन और अभिनन्दन।

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