कोई भी ज्ञान या सिद्धांत मूल रूप में प्रगट या निरूपित होता है। यह आधार ज्ञान या सिद्धांत होता है। इसे मूल ज्ञान या सिद्धांत कहा जाता है। हम ज्ञान और सिद्धांत के लिए एक ही शब्द ज्ञान का प्रयोग करेंगे क्योंकि जान लेने पर ज्ञान और प्रमाणित हो जाने पर सिद्धांत बन जाता है। प्रमाता (जानने वाला) जब प्रमेय (जानने योग) को प्रमिति (सिद्धि या ज्ञान) के माध्यम से सिद्ध कर देता है तो वह प्रमाण बन जाता है। इस प्रक्रिया में विपरीतताओं की संभावनाएँ बनी रहती हैं। एक ज्ञान के विपरीत दूसरा ज्ञान हो सकता है। यह ही नहीं, ज्ञान आवश्यक नहीं की पूर्ण हो और अन्तिम हो। किसी प्राप्त ज्ञान को अतिरिक्त अनुसंधान के चलते परिष्कृत किया जा सकता है, असिद्ध किया जा सकता है और उसके स्थान पर नया ज्ञान प्रस्तुत किया जा सकता है। कोई भी ज्ञान निरपेक्ष (एप्सोल्यूट) नहीं होता अपितु सापेक्ष (रिलेटिव) होता है। एक दृष्टि से ज्ञान तो दूसरी दृष्टि से अज्ञान भी हो सकता है। बहुत जान लेने से ज्ञान हो जाए आवश्यक नहीं। कुछ भी न जानने वाला भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है या यों कहे कि उसे ज्ञान प्राप्त हो जाता है, प्राप्त ज्ञान को अभिव्यक्त भी किया जा सकता है और ऐसा भी हो सकता है कि ज्ञान इतना असीम हो कि उसका वर्णन करना ही सम्भव न हो। ऐसी स्थिति में ज्ञान अनिर्वचनीय बन कर ही रह जाता है। प्रेम, वात्सल्य आनन्द, शोक और करुणा ऐसे मनोभाव हैं जिनकी अनुभूति तो होती है किन्तु यथावत् अभिव्यक्ति हो ही जाय, ऐसा नहीं समझा जा सकता, इसीलिए कवियों की संवेदनाओं के माध्यम से जब कोई जुड़ता है तो संवेदनाओं का सरलीकारण हो जाता है और ऐसा लगता है कि कविता में जो अनुभूति शब्दों के द्वारा व्यक्त हो गई है वह अतिन्द्रीय है। इसी प्रकार संगीत की भी संवेदनाएँ है। फिर भी यह आवश्यक नहीं कि सबको एक ही अनुभव हो। अपनी चित्तवृत्तियों, अथवा मनोदशा के अनुसार संवेदनाएँ ग्राह्य होती हैं अथवा अग्राह्य। मूल रूप में जो ज्ञान अथवा अनुभव होता है उसे मौलिक कहा जाता है। अंग्रेजी में उसको फंडामेंटलिजम और उर्दू में बुनियादप्ररस्ती कहते हैं। इसे रूढ़िवाद भी कहा जा सकता है। किसी भी प्रकार का संशोधन, परिवर्तन इन्हें स्वीकार्य नहीं होता है। यदि कोई परिवर्तन होता है तो उसे इस सिद्धांत को मानने वाले विकृति कहते हैं। वैदिक सनातनी, पौराणिक सनातनी को अमान्य करते हैं। अन्य प्रकार के विचार धाराओं में भी इस प्रकार के तत्व मिलते हैं जैसे व्यक्तिवादी विचारक सामोहिक हित को उचित नहीं मानते। पूँजीवादी सिद्धांतों के पोषक समाजवादी या साम्यवादी विचारों को नाना प्रकार के बहाने बनाकर अनुचित ठहराते हैं, वैसे ही समाजवादी या साम्यवादी विचारक पूँजीवादी या व्यक्तिवादी विचारों को अनुचित और सर्वकल्याण के विरुद्ध मानते हैं। यही नहीं यदि किसी प्रकार का परिवर्तन पर संशोधन लाया जाता है तो उसे मूल साम्यवादी सिद्धांत के विरुद्ध मानकर उसे संशोधनवादी कहकर अस्वीकार कर देते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि साम्यवाद का उदय रूढ़िवाद के विरूद्ध एक वैज्ञानिक सिद्धांत के रूप में आया, किन्तु वह साम्यवादी रूढ़िवाद बन कर हर गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि समाजवाद के रास्ते पर चल रहे देश भी पूँजीवादी साँचे में ढ़लने के लिए मजबूर हो गये, फिर भी साम्यवादी रूढ़ ग्रस्तता टस से मस नहीं हुई, क्योंकि उन्हें इस बात की आशंका बनी रहती है कि कहीं फिर न व्यक्तिवाद उभर जाय और पूँजीवाद का फिर से आना सुनिश्चित हो जाय। इसी प्रकार समाजवादी कार्यक्रमों को अपनाने से पूँजीवादी सशंकित रहते हैं कि कहीं आम जनता में पूँजीवाद की पोल न खुल जाय और जन-जन पूँजीवाद को ध्वस्त करने के लिए उद्यत न हो जाँय। रूढ़िवाद भयग्रस्त होता है इसलिए वह अपनी सुरक्षा पहले सुनिश्चित कर लेने की आन्तरिक और वाह्य तैयारियाँ पूरी किये रहता है।
बहुत से वैज्ञानिक अनुसंधान जब धार्मिक ग्रंथों अथवा धार्मिक आस्था के विपरीत पाये गये तो इसका परिणाम वैज्ञानिकों को मृत्युदण्ड के रूप में मिला। राज सत्ता दुनिया में जब कभी जहाँ भी धार्मिकों के अधीन रही, वहाँ वैज्ञानिक अनुसंधनों को प्रश्रय कम मिला और तक पूर्ण एवं व्यवहारिक जीवन को काल्पनिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए साधन के रूप में स्वीकार करने या कराने में चुक नहीं हुई। भारत एक ऐसा देश है जहाँ की वैदिक धारा ज्ञान और विज्ञान पर आधारित है और उसे अधिक से अधिक अनुसंधान के लिए प्रेरणा देती रहती है, किन्तु ऐसी भी आस्था जनित परम्परायें है, जिन्हें विज्ञान के सिद्धांत अपने ही विरूद्ध लगते हैं। पिछली शताब्दि से धर्म और विज्ञान दोनों में उदारता दिखाई देने लगी। धार्मिक रूढ़िवादियों को भी जब वैज्ञानिक आविष्कारों के लाभ, सुख और सुविधा प्राप्त होने लगीं। तो उन्होंने विज्ञान को महत्व देना स्वीकार किया किन्तु अपनी धार्मिक निष्ठा पर आँच नहीं आने दी तथा अपने अनुष्ठानों में वैज्ञानिक उपकरणों का भरपूर सहयोग लेने लगे। दूसरी ओर तर्क और विज्ञान के समक्ष आस्था का संकट उत्पन्न हो गया, ऐसी स्थिति में वैज्ञानिक सिद्धांतों और उनके आधार पर संचालित होने योग्य जीवन शैली का उपभोग करते हुए धार्मिक आस्था को भी अपनाये रखा गया। वास्तविक भौतिक सत्य में आस्था और अभौतिक सत्ता में विश्वास वैसे ही है जैसे यह कहा जाय कि जिसे जानते नहीं उसे मानते हैं और जिसे मानते हैं उसे जानते नहीं। ऐसी स्थिति में धर्म अपने को वैज्ञानिक प्रमाणित कर के ही टिक सकता है और विज्ञान अपने को आस्था विमुख कर टिक नहीं सकता। यही कारण है कि रूढ़िवाद और संशोधनवाद के बीच यदि सामंजस्य स्थापित नहीं हो पाता तो वैचारिक और भावनात्मक संघर्षों की स्थितियों का बना रहना स्वाभाविक है। आस्थावान जानते हैं कि उनकी आस्था का आधार काल्पनिक और भावनात्मक है, तर्क और विज्ञान सम्मत नहीं। वैज्ञानिक भी यह जानते हैं कि उनका तर्क और अनुसंधान प्रयोग सिद्ध है वास्तविक है फिर भी कल्पनिक आस्थाओं का वे संस्कारगत परम्पराओं के चलते अथवा अपनी सामोहिक लोक लज्जा का आदर करने के लिए उनका निषेध नहीं कर पाते। अवसर का लाभ बाजार के माध्यम से उन सबको प्राप्त हो रहा है जो लिप्त हैं अथवा जो निर्लिप्त।
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अपने-अपने धर्म, मिशन अभियान या अनुसंधान में तल्लिन रहना श्रेयष्कर माना जाता है किन्तु अन्य व्यक्ति, विचार, भाव अथवा कर्म से एलर्जी रखना सर्वथा अनुचित है। भारत के शास्त्र कहते हैं कि जब कुछ नहीं रहेगा तो तर्क ही गुरु का काम करेगा और वादो वादो जायते तत्व बोधः अर्थात् तत्व बोध के लिए वाद, प्रतिवाद और संवाद का चक्र कभी भी रूकना नहीं चाहिए। जब तल्लिनता अन्यों के लिए प्रतिकूल होती है तो कट्टरता समझी जाती है क्योंकि जो तल्लिनता अपने में हिंसा, द्वेष, अहंकार ग्रस्त होती है, वह आत्मघाती भी होती है और प्रतिघाती भी। इसीलिए भारतीय संस्कृति विश्व में महान समझी जाती है क्योंकि वह यह उदार है सहिष्णु है, स्वतन्त्रता का आदर करती है, सर्वस्वीकार्य है इसके दरवाजे सबके लिए खुले हैं और आदिज्ञान और विज्ञान पर आधारित तो हैं ही किन्तु अन्तिम सत्य की खोज में निरन्तर लगे हुए हैं। वेदमंत्र कहते हैं कि विश्व के सभी दिशाओं से श्रेष्ठता को आने दिया जाय। इसीलिए हम कहीं रुके नहीं आगे ही बढ़ते गये ‘चरैवेति-चरैवेति को अंगीकार करते हुए।
क्रमशः 5
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शिव जी पाण्डेय “रसराज”
21 दिसंबर 2021
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