कृषि कानूनों को वापस ले लेने की घोषणा पर किसान आन्दोलनकारियों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए फिलहाल आन्दोलन समाप्त करने का मूड नहीं बनाया। ये कानून संसद से पारित होकर बने थे जिसकी संवैधानिक प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह लगते रहे। प्रधानमंत्री ने घोषणा पहले की और अपनी घोषणा के अनुरूप संसद में उन तीन कानूनों को रद्द करने का प्रस्ताव संवैधानिक प्रक्रिया के अन्तर्गत लाने का आश्वासन दिया। संसदीय लोकतंत्र में संसद द्वारा पारित हो जाने के बाद ही कोई विधेयक कानून बनता है। कानून बनाकर विधेयक पारित कैसे होगा। इसी प्रकार संसद द्वारा पारित कृषि विधेयक जो कानून बन चुके हैं उन्हें संसद द्वारा रद्द किये जाने से पहले वापस लेने की घोषणा किसानों को उचित नहीं लगी, इसी लिए उन्होंने संसद द्वारा रद्द किये जाना, पारित हुए बिना उस पर फिलहाल विश्वास न करने का मन बनाया। किसान नेताओं को यह ज्ञात है कि भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में कई ऐसे अवसर आये, जब सरकार ने आध्यादेशों के माध्यम से कानून तो लागू कर दिया किन्तु संसद में पारित नहीं हो सके। यही नहीं, ऐसे भी अवसर आये जब पारित न होने के भय से आध्यादेशों को विधेयक के रूप में संसद में पेश ही नहीं किया गया। ऐसे भी अवसर आये जब सरकार की घोषणाओं पर विचार करने का अवसर संसद को नहीं मिला। कृषि कानूनों को वापस करते समय सरकार को यह भय भी होगा कि राज्य सभा में उक्त विधेयकों को बिना चर्चा ही पारित घोषित हो जाने पर उसे आपत्तियों का सामना करना पड़ा था और उपसभापति हरिवंश को प्रायश्चित करने के प्रतीक स्वरूप् उपवास करना पड़ा था। मध्य प्रदेश के कृषि मंत्री का यह वक्तव्य भी उल्लेखनीय है कि हम किसानों को समझायेंगे कि नये कृषि कानूनों से क्या-क्या फायदे हैं और पुनः हम इस कानून को लायेंगे। किसान नेता टिकैत ने कहा कि प्रधानमंत्री को यह समझने में ग्यारह महीने लगे कि नये कृषि कानून काले कानून हैं। सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं ने कानून वापसी का स्वागत किया है जिसका यह अर्थ भी निकलना स्वभाविक है कि इस कृषि कानूनों पर उनकी भी आपत्तियाँ रही होंगी, जिन्हें वे प्रगट नहीं कर पा रहे होंगे। विपक्ष ने कानून वापसी की घोषणा को अपने खिसकते हुए वोटों को बचाने का एक प्रयास बताया है फिर भी लोकप्रिय सरकार का संसद में प्रचंड बहुमत है जिस पर सहज विश्वास किया जा सकता है।
आन्दोलनकारी किसानों ने छः माँगों को सामने लाकर अपना आन्दोलन जारी रखने का ऐलान किया है। उनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी मान्यता देना भी है, न्यूनतम समर्थन मूल्य को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए एक आयोग बनाने की घोषणा की है। उल्लेखनीय है कि श्री नरेन्द्र मोदी 2011 में जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे उन दिनों उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए आयोग गठित करने की पेशकश की थी। अब नये आयोग की संरचना की आवश्यक ही क्या है ? उसी के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण किया जा रहा है। इसके सम्बन्ध में यह जानना जरूरी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार अनाजों की खरीद के लिये जो धन राशि बजट में आवंटित करती है उतना ही अनाज खरीदा जाता है। यह खरीद देश के कुल कृषि उत्पादन का लगभग 20 प्रतिशत होता है शेष 80 प्रतिशत आनाज किसानों को बहुत कम मूल्य पर व्यापारी किसानों की मजबूरी का लाभ उठाकर खरीद लेते हैं, जिसके चलते किसानों को फसल का लागत मूल्य भी कभी-कभी नहीं मिल पाता। यदि सरकार वास्तव में किसानों के प्रति संवेदनशील है तो उसे किसानों की मजबूरी का लाभ उठाने वालों से और बाजार यन्त्र द्वारा शोषण करने वालों से बचाने का दायित्व बहन करना पड़ेगा। इसके लिए पूँजीपतियों को कृषि क्षेत्र में कदम बढ़ाने का अवसर देने से अच्छा है कि बिकने को तैयार शतप्रतिशत कृषि उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद लिए जाने की व्यवस्था सरकार कानून बना कर करे। इस कार्य में पूँजी, अन्न भंडारन, स्टाक, संरक्षण और उपभाक्ताओं तक अनाज के पहुँचने के तरीके अपनाने के लिए समग्र नियोजित नीति को इस प्रकार बनाना होगा कि कृषि उत्पादकों और अन्य उपभोक्ताओं तथा कृषि मूल्य में असन्तुलन ऐसा न हो कि किसान और उपभोक्ताओं के बीच उचित आर्थिक सम्बन्ध बनाये रखने में बाधा उत्पन्न हो। किसान को अनाजों के अलावे बहुत से सामान खरीदने पड़ते हैं। वह बड़ा उपभोक्ता है और अपनी किसानी के लिए भी उसे उत्पादक सामग्रियाँ खरीदनी पड़ती हैं जिन्हें भी इस नीति में शामिल करना पड़ेगा। कृषि उत्पाद का मूल्य उपभोक्ताओं को देते समय, उसकी वास्तविक आय और किसानों की वास्तविक आय को भी इस नीति में शामिल करना पड़ेगा। यह अनियंत्रित बाजार प्रणाली के माध्यम से सम्भव नहीं हैं। कृषि क्षेत्र के विकास एवं संरक्षण के लिए यह आवश्यक हैं कि सरकार का हस्तक्षेप हो और कोई भी हस्तक्षेप बिना कानून बनाये संभव नहीं होता। आन्दोलनकारी किसान इसीलिए शब्जबाग छोड़कर धरातल पर बात करना चाहते हैं और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानून के दायरे में लाकर उसकी गारंटी कराना चाहते हैं।
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ऐसा पहले भी होता रहा है कि जिस किसी मंत्री पर आपराधिक आरोप लगते रहे. उन्हें मंत्रीमंडल से हटा दिया जाता था ताकि जाँच प्रभावित न हो पाये। किसानों की दूसरी माँग यहीं है कि केन्द्र सरकार में गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र को मंत्रीमंडल से हटा दिया जाएँ क्योंकि उन पर आपराधिक षड्यन्त्र का आरोप है। मंत्री मंडल में कौन रहेगा या नहीं रहेगा इसके निर्णय का अधिकार केवल प्रधानमंत्री का होता है। एक माँग यह है कि लखीमपुर खीरी काण्ड में किसानों पर लगे आरोपों के मुकदमें वापस लिए जाएँ। यह तो कानूनी प्रश्न है, वैसे यह जाँच और कानून का विषय है। सरकार किसानों की इस माँग को चाहे तो मान भी सकती है। पिछले एक वर्ष में किया किसान आन्दोलन के दौरान लगभग साढे़ सात सौ आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गयी। किसान नेता उन्हें अपने आन्दोलन के लिए शहीद हुआ मानते हैं और क्षतिपूर्ति की माँग करते हैं। आन्दोलन के दौरान किसी की मृत्यु पर शासन की आँखों में आँसू न छलकना और अपने छवि को किसानों के प्रति संवेदन बनाये रखना विपरीत लक्षण लगते हैं। जो लोकतंत्र में उचित नहीं कहा जा सकता। सरकार जनता की पिता-माता अभिभावक भी होती है जिसे भूलना अपनी संतान को भूलने जैसा है। किसानों ने एक ऐसी माँग रखी है जिसके लिए वे स्वयं में उत्तरदायी है फराली जलाने को अपराध न बनाने के लिए उन्हें स्वयं ही फराली नहीं जलानी चाहिए और डिस्पोजल टेक्निक अपना कर फराली को खाद में बदल देने का प्रयास करना चाहिए। यदि ऐसा किसान नहीं करते तो उन्हें ही बताना चाहिए कि सरकार तब क्या करे ? किसानों पर चल रहे मुकदमें वापस लेने और बिजली का मूल्य वापस लेने की माँगे सरकार चाहे तो मान सकती है। एक और समस्या भूमिहीन कृषि मजदूरों की है जो अधिगृहित भूमि से विस्थापित हैं जिनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था होनी चाहिए, अब ऐसे मुद्दे नहीं रह गये हैं जिनके लिए आन्दोलन ही एक मात्र विकल्प हो, जिस पर किसान संगठनों को सोचने की आवश्यकता है।
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शिव जी पाण्डेय “रसराज”
23 नवंबर 2021
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Bahut hi sunder
बेहतरीन और सम – सामयिक लेख अपने बेबाक विश्लेषण और तकनीकी पहलुओं पर गम्भीर प्रकाश डालने के कारण यह लेख और भी मूल्यवान हो जाता है । आपने जिस खूबसूरती से सरकार की सदाशयता और संवेदनशीलता को कटघरे में घसीटा है वह काबिले तारीफ है । लेख का 95% हिस्सा पर मेरी सहमति है । पराली जलाने के सवाल पर भी मैं आपसे सहमत हूँ । चाहे कोई व्यक्ति हो उसे पर्यावरण को क्षतिग्रस्त करने का अधिकार नहीं होना चाहिए ‘ पराली को खाद में परिवर्तित अवश्य करना चाहिए, परन्तु इसके लिए सरकार को जुबान के अतिरिक्त भी तकनीकी और अनुदानिक सहयोग करना चाहिए । इसके अतिरिक्त पर्यावरण को क्षतिग्रस्त करने वाले अन्य कारकों को चिन्हित करके उसके निवारण के कानूनी उपाय करने चाहिए । लेख के अन्त में आपका झुकाव सरकार के तरफ हो गया लगता है [ ऐसा क्यों है? यह मेरी समझ में नहीं आया, क्योंकि अपने लेख के शुरआत में ही आपने सरकार की सदाशयता और संवेदनशीलता को संदिग्ध माना है । आप यह भी देख रहे हैं कि इस सरकार के कथनी और करनी में कितना फर्क है। फिर भी आप ने दबे स्वर में आन्दोलन को वापस लेने की बात की है । आश्चर्य तो मुझे यह भी हुआ कि विधेयक और कानून के तकनीकी पक्षों को आप समझाते हुए भी सिर्फ प्रधान मंत्री के महज घोषणा कर देने के कारण आन्दोलन को बन्द किए जाने की हिमायत की है । किसानों पर इस आन्दोलन या इसके पूर्व किए गए किसान आन्दोलन के दौरान दर्ज मुकदमें ही वापस लिए जाने चाहिए । ऐसा मेरा कहना है ! बिजली किसानों को या तो मुफ़्त या अत्यन्त रियायती दर पर मिलनी चाहिए । मेरा यह भी कहना है कि आज भी कृषि क्षेत्र के पास देश को अत्याधिक रोजगार देने की क्षमता है, परन्तु इसके लिए कृषि को उद्योग का दर्जा दिए जाने की जरूरत है । लेकिन इसकी आवाज न किसान आन्दोलन ने उठाई है और नं आपने । पुनः एक अच्छे और सामायिक लेख के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद ।
यह लेख सिर्फ वो बता रहा है जो हमे दिख रहा है।किंतु वो नही बता रहा जो नही दिख रहा है।
1. क्या भारत देश के सारे किसान इसके खिलाफ थे? ये कैसे सुनिश्चित कीया गया, क्योंकि ऐसे कोई भी प्रक्रिया नही अपनायी गयी जिससे ये स्पष्ट ही सके कि सारे इसके खिलाफ है।
2. क्या कानून वापिस होने से छोटे किसान 1 बीघा या 2 बीघा वाले, जो दलित है या गरीब है, क्या उनका भला होगा? या सिर्फ टिकैत महाराज कह रहे है इसलिए मान ले बस।
3. टिकैत महाराज ने तो कभी भी ये भी नही बताया स्पष्ट रूपस से की कानून की कौन से पॉइंट गलत है,और क्या गलत है, जबकि सरकार उनसे पूछती रही
4.टिकैत एवं पंजाब एवं हरियाणा के ज्यादातर नेता किसानों से दलाली खाते है,इस कानून से वो खत्म होने वाला था शायद यही मुख्य परेशानी थी।
5. इस आंदोलन में मियां खलीफा का क्या रोल था? अभी तक स्पष्ट नही हुआ।
6. इस आंदोलन में लाल किले पे जो हुआ, उसकी ज़ीमेदारी किसकी है?
7. जिस लड़की के साथ छेड़छाड़ हुई, वो क्यों हुई? जय आंदोलन कर्ता मस्ती करने आये थे?
ऐसे बहुत सवाल है जो अनसुलझे है और कोई टिकैत इसका जवाब नाहिद रहा है।
शायद लेखक डे सके
प्रशांत जी,
आपको विनोद कुमार सिंह जी द्वारा लिखे गए कमेंट्स को पढ़ना चाहिए, उम्मीद है आपके सवालो के जबाब मिल जायेंगा।
I would say, the law should not have pulled back. Rather, Govt can amend it suitably. India is much behind in making changes to it’s industries. We cannot keep on supporting farmers – farmers should stand on their feet. It has been noticed that we always look for grants and discounts but would never contribute ourselves to the country. Okay, farm laws are now cancelled, why can’t the govt introduce income tax on agri income? It will only affect people who earn more than the benchmark set – small farmers will not come under tax bracket anyways!