Suggestion आगे ही नही पीछे भी

आगे ही नहीं पीछे भी : हर युवा बने विवेकानंद

1893 ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो नगर में आयोजित धर्म संसद में ईसाई धर्मावलंबियों की प्रभावशाली उपस्थिति के बीच भारतवासी गेरुआ वस्त्रधारी एक युवा सन्यासी का अपने कुछ मित्रों के साथ अचानक सम्मिलित होना एक चमत्कारिक घटना के रूप में चिर स्मरणीय बन गया। प्रयास करने पर जिस युवक सन्यासी को अपना व्याख्यान देने की अनुमति मिली उसका नाम विवेकानंद है। बचपन में यह नरेंद्र था और कोलकाता विश्वविद्यालय से प्रतिभाशाली स्नातक के रूप में निकला, उन दिनों के महान  परमहंस संत रामकृष्ण जी का मेधावी शिष्य हुआ जिस पर भारतीय ब्रह्मविद्या से सब को अवगत कराने का दायित्व सौंपा गया। गुरुजी अद्वैत ‘काली’ भक्त थे और विवेकानंद अद्वैत वेदांती|

धर्म संसद में ईसाई धर्म के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट विचारधाराओं के प्रतिनिधि जमे रहे। क्षमा के सहारे पाप करना और पोप द्वारा उसे माफ करना, प्रोटेस्टेंट को स्वीकार नहीं| मार्टिन लूथर किंग ने अपने प्रोटेस्ट के द्वारा ईसाइयों में सत्कर्म और प्रेम की प्रेरणा दी और पोप की गतिविधियों पर प्रश्न चिन्ह लगाया था| अमेरिका में आयोजित धर्म सम्मेलन की पृष्ठभूमि में इन विचारधाराओं से उत्पन्न अनेक समस्याओं का समाधान भी इस धर्म संसद में होना था| दूसरी ओर अमेरिका में रंगभेद और उससे उत्पन्न समस्याएं तथा बदलते सामाजिक परिवेश में द्वेष व्यस्त था सामाजिकता को लेकर पैदा हो रही कठिनाइयों के चलते वहां के नीग्रो समुदाय के लोग उत्पीड़न का शिकार हो रहे थे। यह समस्याएं ईसाई धर्म के प्रेम, करुणा और क्षमा पर आधारित मूल सिद्धांतों के विरुद्ध था क्योंकि नीग्रो और विस्थापित सभी ईसाई ही थे, तो किसी भी प्रकार का भेदभाव क्यों? इस धर्म संसद में नीग्रो नेता मार्टिन लूथर किंग के भेदभाव के प्रश्न पर भी धर्म संसद में विचार होना था। अन्य धर्मों के भी प्रतिनिधि उस संसद में सम्मिलित हुए| उन दिनों भारत की गरीबी, अंग्रेजी द्वारा किए जा रहे शोषण, अशिक्षा, नारियों की दुर्दशा, सामाजिक भेदभाव और अन्य बहुत सी सामाजिक व आर्थिक समस्याओं को लेकर रमाबाई नामक एक सामाजिक कार्यकत्री अमेरिकनों का ध्यान आकर्षित करके, उनमें सहानुभूति जागृत करते हुए सेवा, प्रेम और करुणा के साथ भारत में अपनी भूमिका सक्रिय रुप से निभाने के लिए व्यापक जनसंपर्क में लगी हुई थीं। उधर भारत में छुआछूत, ऊंच-नीच, महिला अशिक्षा, विधवा बहिष्कार, सती प्रथा, बाल विवाह आदि का उन्मूलन 19वीं शताब्दी का नवजागरण काल था जिसको लेकर विभिन्न मनीषियों और समाज सुधारकों ने व्यापक अभियान छेड़ रखा था। राजनीतिक परिदृश्य ऐसा था कि लगभग 500 साल से चले आ रहे, मुगल शासकों और यहां के अन्य राजाओं को पदच्युत करके व्यापार करने आए पुर्तगालीयों, फ्रांसीसीयों और अंग्रेजों का शासन स्थापित हो चुका था। पूरा भारत आजादी के लिए छटपटाने लगा था। यहां की सभी समुदाय के लोगों में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बहुत तेजी से बन रहे थे। ऐसे परिवेश में भारत के एक युवा सन्यासी द्वारा अमेरिका के विश्व संसद में अघोषित भारतीय धर्म-दर्शन के साथ भाग लेना, विसंगतियों के बीच सुसंगती ज्ञान को स्थापित करने से कम कुछ नहीं था। धर्म के नाम पर संघर्षरत विश्व को सद्ज्ञान के माध्यम से भारतीय चिंतन प्रवाह से अवगत कराने का एक ऐसा अवसर था। जिसमें पूरा विश्व भारत के अध्यात्म ज्ञान से परिचित हो जाता। इसका परिप्रेक्ष्य विवेकानंद को पता था। क्योंकि उनका अपना उपमानकरण गुरुवर रामकृष्ण ने करते हुए यह अवश्य विचार किया होगा कि नरेंद्र दत्त विवेक में आनंद की अनुभूति करने वाला युवक है। विवेक सत्य के समीप लाने और असत्य से दूर रहने को दिशा देता है।

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अपना समय आने पर धर्म संसद में उस समय बहुत देर तक करतल ध्वनि होती रही जब विवेकानंद ने अपना संबोधन ‘अमेरिकावासी बहनों एवं भाइयों’ से कि-या। यह संबोधन एक ईश्वर की सभी को संतान होने का गौरव पूर्ण रेखांकन करता है कि जब सभी एक ही पिता परमेश्वर की संतान हैं तो विश्व के सभी मानव चाहे जिस भू-भाग, जिस रूप आकार में रह रहते हो भाई-बहन हैं। उन्होंने भारत की सनातन धर्म परंपरा का उल्लेख किए बिना, या बतला दिया कि भारत में चिंतन की विविधता रही है, हर विचार का आदर रहा है और नए नए विचारों को पल्लवित पुष्पित होने का अवसर मिलता रहा है। विविधताओं में रहना किंतु एक दूसरे का विरोध ना करना बल्कि सब को स्वीकार करते हुए सदैव आगे बढ़ते रहना भारत की चिंतनधारा का मूल है। विवेकानंद के व्याख्यान के हर अंश पर धर्म संसद में सम्मिलित हुए लोग मंत्रमुग्ध हो गए| उनके भाषण का आशय यह था कि भारत एक ऐसा देश है जो अपने परंपरा को वर्तमान के साथ जीना जानता है। वह यह मानता है कि परमेश्वर की सत्ता सब में एक समान है इसलिए इस ज्ञान के आधार पर प्रेम जीवन का अंतिम सत्य है और कोई भी कार्य करते हुए इसे निष्ठा पूर्वक याद रखना चाहिए। भारतीय सिद्धांत के अनुसार जीवन समन्वय का स्वीकार्य है नफरत, ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान, शोषण आदि का कोई स्थान नहीं| सबको परमेश्वर को जानने, उनसे प्रेम करने, सत्कर्म के द्वारा मानव मात्र की सेवा करने और करुणा, सेवा और क्षमा के सहारे सबमें एक परमेश्वर को उपस्थित मानकर सबसे प्रेम करने और सब की सेवा करने का धर्म दर्शन देता है। उनके भाषण का आशय एक ऐसे धर्म की स्थापना करने के लिए प्रयास करना है जिसमें प्रेम और समन्वय का समावेश किया जाए, नफरत एवं शोषण मुक्त विश्व का निर्माण किया जाए और एक परमेश्वर को जानने और उससे प्रेम करने का मार्ग प्रशस्त किया जाए। परमेश्वर का नाम चाहे जो भी हो, जिस भाषा में हो लेकिन वह है तो एक ही|

विवेकानंद धर्म संसद में एक महान मानव धर्म के अधिष्ठाता के रूप में ऐसा उभरे कि अमेरिका में महीनों तक उनके व्याख्यान, स्थान-स्थान पर विशेष आयोजन करके होते रहे। जिस देश में नफरत और शोषण फैलाकर धार्मिक शक्तियां भी उनके ही पक्ष में घूम फिर कर खड़ी हो रही हो, वहां भारतीय ब्रह्म विद्या का उन्हीं की भाषा में बताने का प्रयास होना, उनके लिए विलक्षण बात थी। अमेरिका वासी खासतौर पर युवक विवेकानंद के जादुई व्यक्तित्व और उनकी दिव्य वाणी के दीवाने हो गए। भारत के इस युवा सन्यासी ने जो धर्म दर्शन प्रस्तुत किया उसमें किसी की भी  निंदा नहीं थी अपितु सभी धर्मों के मूल सिद्धांतों का समन्वित निरूपण था। युवा सन्यासी विवेकानंद को भारत के युवकों ने अपना आदर्श माना, भारत सरकार ने भी उनके जन्म दिवस 12 जनवरी को युवा दिवस के रूप में मनाना आरंभ किया। हम भी युवा शक्ति और उसके शलाका पुरुष का अभिनंदन करते हैं और अपेक्षा करते हैं कि युवक सभी विचारों का गहराई से अध्ययन करेंगे और भारत के चिंतन प्रवाह को नए-नए अनुसंधान द्वारा परिपुष्ट करते हुए अग्रसरित करते रहेंगे। विवेकानंद एक प्रेरणा हैं, एक शक्ति हैं, जिनके मार्ग पर चलने की आवश्यकता है किन्तु उनकी विवेकपूर्ण शैली को अपनाते हुए|

आपकी टिप्पणियों और विचारों का स्वागत है!

Shivji Pandey


शिव जी पाण्डेय “रसराज”

12 जनवरी 2022


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