आगे ही नही पीछे भी

आगे ही नहीं पीछे भी… शिव-पार्वती का विवाह कब?

लोक प्रचलित पौराणिक कथा शिव और पार्वती के विवाह को एक घटना के रूप में लोग मानते हैं। इस कथा अनुसार आदि देव शिव का विवाह प्रजापति दक्ष की कन्या सती से हुआ था। दक्ष को प्रजापति होने का अभिमान हो गया था। दक्ष ने एक यज्ञ किया जिसमें अपने जामाता शिव को आमंत्रित नहीं किया। अनामंत्रित शिव यज्ञ में भाग लेने कैसे जाते? सती ने हठ पूर्वक अपने पिता के यज्ञ में सम्मिलित होने का निश्चय किया और शिव ने उन्हें समझाया कि बिना निमंत्रण जाना कल्याणकारी नहीं है। फिर भी सती के साथ दो अनुचर शिव ने लगा दिये। सती अपने पिता के घर गयीं, जिनका आदर उनकी माता को छोड़कर किसी ने नहीं किया। यज्ञ स्थल पर शिव का स्थान न पाकर सती कुपित हो गयीं और यज्ञ कुण्ड में अपने को भष्मकर यज्ञ का विध्वंश कर दिया, लेकिन शरीर त्यागते समय उन्होंने पुनर्जन्म होने पर शिव को ही पति रूप में प्राप्त करने की आकांक्षा की। पुनर्जन्म में सती को हिमालय राज के घर पार्वती के रूप में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पिछले जन्म में दक्षत्व ने शिवत्व का तिरस्कार किया था किन्तु इस जन्म में पार्वती को शिव तत्व को प्राप्त करने के लिए साधना करनी पड़ी, जिसमें पर्वत राज हिमालय और उनकी पत्नी मैंना ने भी भरपूर सहयोग किया। साधना पूरी होने पर पार्वती और शिव विवाह महाशिवरात्रि के दिन सम्पन्न हुआ इस बीच शिव ने काम को भष्म कर दिया था और निष्काम शिव ने कार्तिकेय और गणेश को जन्म दिया। शिव के पाँच मुख, कार्तिक के छः मुख और गणेश का षष्ठमुख प्रसिद्ध है। गणेश का शरीर पार्वती का और मुख शिव प्रदत्त माना जाता है। शिव आदि देव और पार्वती आदि शक्ति, कार्तिकेय देव सेना नायक और गणेश प्रथम पूज्य माने गये। शिव का सवारी बैल, पार्वती का सिंह, कार्तिकेय का मयूर और गणेश का चूहा लोक प्रचलित है। शिव को हलाहल कंठ में धारण करने वाला और सिर पर गंगा तथा ललाट पर चन्द्र के अतिरिक्त सर्पों और बिच्छुओं की माला और कुण्डल धारण करने वाला, सम्पूर्ण सृष्टि की रचयिता पार्वती अकेले सिंह पर सवार होती हैं और शिव के साथ बैल पर। गणेश गणितज्ञ, महान लेखक, रिद्धि-सिद्धि दाता माने जाते हैं। शिव के परिवार में विपरीतताओं का दर्शन होता है किन्तु सामंजस्य ऐसा की संघर्ष नहीं होता। विष और गंगा, सर्प और मयूर, सिंह और बैल आदि विपरीत गुण-धर्म वाले इस परिवार में सामंजस्य पूर्वक रहते हैं। विशालकाय गणेश जो विवेकी हैं वे छोटे कुतरने वाले चूहे की सवारी करते हैं। शिव के परिवार का हर सदस्य इसीलिए पूज्य है।

उक्त कथा को विमर्श युक्त तुलसीदास ने अपने श्री राम चरित मानस में जिस रूप में प्रस्तुत किया है वह विलक्षण है। सती श्रद्धा के और शिव विश्वास के प्रतीक हैं। सती तर्क द्वारा और शिव विश्वास द्वारा परम तत्व को जानने का प्रयास करते हैं। मानस के अनुसार शिव और सती अगस्त मुनि के आश्रम में अवतारी राम की कथा सुनने गये, किन्तु शिव ने उस कथा को हृदयंगम किया किन्तु सती ने तो सुना किन्तु उनमें अवतार के प्रति आस्था उत्पन्न नहीं हुई। जाते समय सीता हरण से क्षुब्ध राम लक्ष्मण को देखकर शिव ने देह धारी राम को ‘जय सच्चिदानन्द जग पावन’ कहते हुए आगे बढ़े जिस पर सती ने प्रश्न खड़ा कर दिया कि व्यापक ब्रह्म शरीरधारी मनुष्य रूप में कैसे हो सकता है। शिव ने अपनी विश्वास जनित अनुभव के साथ सती को समझाया। सती ने राम की परीक्षा भी ली, उन्हें ऐसा लगा की राम सर्वज्ञ हैं, किन्तु शिव ने अपने ज्ञान चक्षु से घटना क्रम का बोध प्राप्त करके सती का मांसिक त्याग कर दिया और समाधिस्थ हो गये। इसके बाद की घटनाओं का उल्लेख उपर्युक्त पैराग्राफ में किया जा चुका है। पार्वती से शिव का विवाह हो जाने के पश्चात् पार्वती ने कैलाश पर्वत पर फिर वही प्रश्न उपस्थित कर दिया कि जो ब्रह्म व्यापक है जिसे वेद भी निश्चित रूप से निरूपित नहीं कर पाते, वह शरीर कैसे धारण कर सकता है? तुलसी दास ने ज्ञान प्राप्ति के दो धाराओं का विवेचन किया है एक तो पार्वती की धारा तर्क, ज्ञान और विज्ञान की धारा है, जिसमें जान करके ही माना जाता है। दूसरी शिव की धारा है जिसमें आस्था, विश्वास और भक्ति है। इस धारा में मान लिया जाता है और बाद में जान भी लिया जाता है। पार्वती की धारा विज्ञान सम्मत और शिव की धारा विश्वास सम्मत है। सनातन दृष्टि से पार्वती वैदिक धारा की पोषक दिखतीं हैं और शिव पौराणिक धारा के। शिव ने कैलाश पर्वत पर पार्वती को अर्थात् विश्वास ने तर्क को वह राम कथा सुनाया जिसे उन्होंने बहुत पहले से रचकर अपने मन में रखा था। तुलसी ने राम कथा को ज्ञान और भक्ति दोनों ही धाराओं से परिपुष्ट रूप में रचकर विस्मयकारी समन्वय स्थापित किया। पार्वती ने शिव को प्राप्त करने की साधना की किन्तु शिव को समाधि की अवस्था सहज रूप में प्राप्त थी।

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शिव और पार्वती के विवाह के आख्यान का यौगिक स्वरूप द्रष्टव्य है। योग विद्या में पार्वती कुण्डलनी के प्रतीक हैं और शिव का स्थान ब्रह्मरन्ध्र है जिसे सहस्त्र चक्र कहते हैं। यही कैलाश है जहाँ शिव का नित्य निवास है। पार्वती का पूर्व जन्म अविवेक पूर्ण और अहंकार से भरा हुआ था, इस लिए वह कैलाश तक नहीं जा सकी। पुनर्जन्म में पार्वती बनने पर अर्थात् पर्वत के समान दृढ़ निश्चयी कुण्डलनी जिसके दो मुख योगियों ने बताया। वे योग साधना से खुलते हैं और जो रीढ़ की हड्डी के मध्य तीन नाड़ियों के मध्यवाली सुषुम्ना नाड़ी का पथ प्राप्त करके उर्ध्वगामी होती है उसे मूलाधार चक्र से प्रस्थान करके स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र से होते हुए ब्रह्मरन्ध्र (कैलाश) तक जाना होता है। वहाँ कुण्डलनी का चर्मोत्कर्ष विन्दु प्राप्त होता है जहाँ ज्ञान और आनन्द, रस और प्रेम, ज्ञान और भक्ति प्रकट हो जाते हैं। वहीं कुण्डलनी का नित्य निवास है जहाँ तुलसी की श्रद्धा (पार्वती) ज्ञान और तर्क को समाधान मिल जाता है और उसमें सहज विश्वास (शिव) उदित हो जाता है। गंगा की शीतल धारा और चन्द्रमा की कान्ति उसके जीवन को धन्य कर देती है। जीवन की सम्पूर्ण विपरीतताएँ तिरोहित हो जाती हैं। दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाती है, योग का कैवल्य प्राप्त हो जाता है, आत्मा को परमशान्ति, अनावृत्त चैतन्य बोध, असीम प्रेम, अपने से अपनी अभिन्नता, महारास की स्थिति, बैकुण्ठ और गोलोक की कल्पनाएँ साकार हो जाती हैं। शिव और पार्वती का अर्थात् जीव और शिव का अनन्त मिलन योगियों की महाशिवरात्रि है जो हर मानव के लिए अभीष्ट है। क्योंकि कुण्डलनी को ब्रह्मरन्ध्र में अमृत पान का ऐसा सुअवसर मिलता है जिसके लिए वह न जाने कितने जन्मों से तृषित है। अमृत पान करके वह, अमरत्व को प्राप्त कर लेती है।

शरीर अमर नहीं होता क्योंकि वह अमर तत्वों से बना ही नहीं है। आत्मा अमृत पान करके ब्रह्मतत्व को सहज प्राप्त कर लेती है चुकि आत्मा और ब्रह्म तत्वतः एक हैं, इसलिए कुण्डलनी साधना अनेकत्व के हर आवरण का विच्छेेेदन करके, ब्रह्ममय होकर अमरत्व को सहज ही प्राप्त कर लेती है। पुराणों के कथानक रोचक, उसमें निहित सिद्धांत वैदिक और उनका क्रियान्वयन प्रयोग सिद्ध है। शिव-पार्वती की कथा सुन्दर है, विचारात्मक है और योग सिद्ध भी है। इसलिए प्रयोगात्मक है किन्तु विडम्बना यह है कि कथानकों को वास्तविक ऐतिहासिक घटना मान लिया जाता है और उसके निहितार्थ को छोड़ दिया जाता है क्योंकि वह विचार और प्रयोग सिद्ध है। इसलिए सबके लिए कठिन और दुष्प्राप्त लगती है, किन्तु ऐसी बात है ही नहीं, तुलसी ने कहा

सबही सुलभ सब दिन सब देसा।

सादर सुमिरत समन कलेसा।।

क्रमशः 4

आपकी टिप्पणियों और विचारों का स्वागत है!

Shivji Pandey

शिव जी पाण्डेय “रसराज”

20 दिसंबर 2021



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