National आगे ही नही पीछे भी

आगे ही नहीं पीछे भी… कैसे तय होती है एम.एस.पी.?

कृषि उत्पादों का न्यूनतम मूल्य तय करने की आवश्यकता के पीछे किसानों को उनके उत्पाद के लिए कम से कम लागत मूल्य निश्चित करना रहा। इसका उद्देश्य किसानों को किसानी से घाटे को बचाना, सरकार को न्यूनतम मूल्य पर अनाजों की खरीद सुनिश्चित करना अन्न उपभोक्ताओं को बाजारू मूल्य वृद्धि के भार से सुरक्षित करना और उत्पाद विक्रय से प्राप्त आय द्वारा खरीदे जाने वाली अन्य वस्तुओं की अप्रत्यासित मूल्य वृद्धि से राहत दिलाना रहा। जब कृषि उत्पाद के मूल्य बढ़ते हैं तो अन्य उपभोक्ता वस्तुओं के भी मूल्य बढ़ने लगते हैं। अधिक मूल्य पर किसान जब उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद करता है तो उसे बचतें तो प्राप्त होती नहीं, दूसरी ओर वह ऋणग्रस्तता का शिकार हो जाता है। पहले से ही वह ऋणग्रस्त होता है जिसे वह चुकाने में अपना कृषि उत्पाद, अपना और अपने परिवार का श्रम तथा अपनी भूमि सब कुछ को दाँव पर लगा कर भी जीवित रहना चाहता है। जब इसमें भी वह असफल हो जाता है तो वह अपना प्राण त्यागने को मजबूर हो जाता है। जब उसे विपरीत मौसम, विपरीत कृषि बाजार, विपरीत वस्तु बाजार और विपरीत पूँजी बाजार का सामना करना पड़ता है तो वह जीवित तो दिखाई देता है किन्तु भीतर से मरा होता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति किसानों में आत्मविश्वास पैदा करने के लिए, बाजार के उतार-चढ़ाव से मुक्त रखने के लिए और किसानी में भरोसा बनाये रखने के लिए, एक व्यवहारिक कदम के रूप में लाई गई। एक लोकतांत्रिक सरकार अपनी जनता के प्रति उत्तरदायी होती है और उसके दुःख को कम करने तथा सुख को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाती है। जब लोकतांत्रिक सरकार लोकपक्ष की उपेक्षा करती है और निहित स्वार्थी तत्वों के हाथ की कठपुतली हो जाती है तो उसके विरुद्ध जनमत तैयार होने लगता है। जिसका कोपभाजन अभी या कभी सत्ता पक्ष को बनना पड़ता है। किसानों की विपरीत दशा को भी राजनीति का विषय बना लिया जाता है जिसके लिए कर्जमाँफी, राजस्व माँफी, फसल, बीमा, प्रशिक्षण कृषि अनुसंधान केन्द्र की सुविधायें आदि मुहैया कराने के वादे किये जाते हैं और लागू न होने पर विरोध का झंडा खड़ा किया जाता है।

भारत में वस्तु उत्पादन क्षेत्र का मूल्य उत्पादक तय करते हैं। कच्चा माल की लागत श्रम का मूल्य, स्थाई और परिवर्तनशील पूँजी का मूल्य प्रबन्धन का मूल्य, यहाँ तक की लाभांश, उत्पादकों को बाजार के उतार-चढ़ाव के देखकर लागत मूल्य स्वयं तय कर लेते हैं। अर्थात् उत्पादन के सभी कारकों के मूल्य जब बढ़ते है तो लागत बढ़ जाती है। लाभांश प्रत्यक्ष आय कर पर निर्भर नहीं करता अपितु लाभांश पर आय कर निर्धारित होता है। उत्पादन के कारकों का मूल्य उसके आपूर्ति कत्र्ता पर निर्भर करता है। उत्पादक को अपने उत्पादक पर निर्धारित जी0एस0टी0 अप्रत्यक्ष कर के रूप में देनी पड़ती है। उत्पादक ईकाइयाँ अपना उत्पादन तब तक बन्द नहीं करती जब तक उन्हें परिवर्तनशील पूँजी पर लागतें मिलती रहती है। उत्पादक अपने उत्पाद को समरूप वस्तुओं से मूल्य मिलाने के लिए स्वतन्त्र होता है। एक उत्पादक अपनी वस्तु का विक्रय मूल्य समरूप उत्पादन के विक्रय मूल्य के बराबर कर लेने के लिए स्वतन्त्र होता है। वह अपने उत्पाद को बाजार में लाने या न लाने के लिए भी स्वतन्त्र होता है। चूँकि ये वस्तुएँ शीघ्र नष्ट होने वाली नहीं होती इसलिए इन वस्तुओं की उपलब्धता बाजार में बनाये रखना उत्पादको के लिए जरूरी नहीं होता। वे अपना उत्पादन न बेंचने के लिए भी तैयार हो सकते हैं। उत्पादक एकाधिकार भी प्राप्त कर सकते हैं, एकाधिकारी मूल्य भी वसूल सकते हैं और अपने उत्पाद के विक्रय के नाम पर सम्पूर्ण समाज का आर्थिक शोषण भी कर सकते हैं।

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कृषि का मूल्य तय करने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि कृषि के लिए खाद, बीज, बिजली, डिजल, श्रमिक, हल, ट्रैक्टर, सिंचाई हार्बेस्टर थ्रेसर, निराई, गुड़ाई, कीटनाशक आदि के मूल्य सरकार तय करती है, उनकी उपलब्धता भी सरकार पर निर्भर है और उनकी उपलब्धता के तरीके भी सरकार ही तय करती है। कृषि उत्पाद कहाँ, किसे, कब, किस मूल्य पर बेंचे जायेंगे यह भी सरकार ही तय करती है। खेत किसानों का उपज किसानों का और उनके मूल्यों को तय करने वाली सरकारी व्यवस्था के जंजाल में फँसी हुई है किसानी। ऐसी दशा में जब कृषि कारकों के मूल्य बढ़ते हैं तो उत्पाद की लागत बढ़ती है, जिसका प्रभाव न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने पर पड़ना स्वभाविक है। मुसिबत तब पैदा होती है जब सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर कृषि कारक सुलभ नहीं होते। बिना रिश्वत बैंक ऋण नहीं देते और न तो किसान क्रेडिट कार्ड ही मिलता है। उस समय किसान मुसीबत में पड़ जाते हैं लहलहाती फसल नष्ट हो जाती है और फलित फसल को आपदा और विपदा का शिकार होना पड़ता है। फसल बीमा योजना के चलते किसानों को राहत देने का प्रयास किया गया है किन्तु गणितीय राहत और वास्तविक क्षति के बीच असंतुलन का बना रहना स्वभाविक है। किसानी गणितीय तराजू पर तौली जाती है किन्तु उसे व्यवहारिक आधार देने की कोई योजना दिखाई नहीं देती। न्यूनतम समर्थन मूल्य एक गणितीय लागत प्रक्रिया के अन्तर्गत तय होती है जब कि किसानों को उस मूल्य पर लाभ को कौन कहे, लागत भी नहीं आती। लाभकारी कृषि को लेकर भारत में आवाज भी उठती रही है और राजनीति भी होती रही है।

सरकार पर समय-समय पर होते रहे दबाओं के चलते कृषि उत्पादकों को बाजार के उतार-चढ़ाव व दाँव पेंच से बचाए रखने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पाद की खरीद के लिए सरकार ने पहल की जो कुल कृषि उत्पाद का 20 प्रतिशत के लगभग रहा अर्थात् कुल कृषि उत्पाद का 80 प्रतिशत स्टाक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर न बिककर बाजार के उतार-चढ़ाव व दाँव पेंच का शिकार होता रहा है। किसानों की मजबूरियों को लाभ कमाने का अवसर बनाया जाता रहा है। न्यूनतम समर्थन पर अधिक से अधिक मात्रा या सम्पूर्ण कृषि उत्पाद को खरीदने की योजना बना कर किसानों को बड़ी राहत देने का दबाव सरकार पर बनता रहा है। सरकार ने लागत मूल्यों पर परिवर्तन होने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य को परिवर्तित करके किसानों को राहत पहुँचाने का प्रयास किया। ढ़ाई साल पूर्व यह भी प्रयास आरम्भ हुआ कि कृषि लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया जाए। सरकार ने यह भी संकल्प लिया है कवह 2024 तक किसानों की आय दूनी कर देगी। ये संकल्प भी गणितीय ही होंगे और तेजी से बढ़ रही मुद्रा स्फीति बेरोजगारी एवं कृषि कारकों के बढ़ते मूल्यों के चलते किस हद तक सफलता मिलती है यह प्रतीक्षा का विषय है।

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Shivji Pandey

शिव जी पाण्डेय “रसराज”

17 नवंबर 2021



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